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३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) कर्मसिद्धान्तविज्ञ में कर्मफल को समभाव से भोगने की शक्ति
जब मनुष्य अपने दुःख और संकट का कारण स्वयं को ही मानने लगता है तब उसमें कर्म का फल शान्ति से, समभाव से भोगने की भी शक्ति आ जाती है। दैनन्दिन जीवन में कर्मसिद्धान्त के इस प्रकार के अभ्यास से आने वाले सुख-दुःख के झंझावतों में उसका मन प्रकम्पित नहीं होता। अपितु आशा और विश्वास की लहरें उसके जीवन में व्याप्त हो जाती हैं।
किसी कवि की यह सुन्दर उक्ति उसके जीवन को समभाव के महल में सुरक्षित रहने की प्ररणा देती है
“सुख के उजले सुन्दर वासर, संकट की काली रातें।
वर्षों कट जाते हैं दिन-दिन, आशा की करते बातें॥ . इस प्रकार कर्मसिद्धान्त को मानने-जानने वाले व्यक्ति का जीवन-प्रसाद आशा और विश्वास के स्तम्भों पर टिक जाता है। वह कभी कर्मसिद्धान्त के प्रति अविश्वासी. और निराश नहीं होता, क्योंकि उसको यह दृढ़ प्रतीति हो जाती है कि आत्मा को सुख-दुःख की गलियों में भटकानेवाला मनुष्य का स्वकृत कर्म ही है, दूसरा कोई नहीं। यह सब दुःख और संकट, रोग या शोक उसके पूर्वकृत अशुभ कर्मों के अवश्यम्भावी परिणाम हैं। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त को भली भांति हृदयंगम और अभ्यस्त करके चलने वाले आश्वस्त और विश्वस्त व्यक्ति के जीवन में निराशा, तमिना, किंकर्तव्यविमूढ़ता. दीनता-हीनता नहीं आती कर्मसिद्धान्तविज्ञ दुःख-विपत्ति के समय व्याकुल नहीं होता
यह देखा जाता है कि इहलोक या परलोक से सम्बन्धित कोई भी कार्य जब मनुष्य प्रारम्भ करता है तो उसके मार्ग में प्रायः कई विघ्न, संकट या दुःख आ पड़ते हैं। फलतः उसे प्रारम्भ किये हुए कार्य में सफलता नहीं मिलती। कई बार विजों, बाधाओं और आपदाओं के थपेड़ों से आहत होकर वह अपने प्रारम्भ किये हुए कार्य को छोड़ने को उतारू हो जाता है। कभी-कभी ऐसा भंयकर विघ्न या संक आ पड़ता है कि उसके सारे मनसूबे धूल में मिल जाते हैं। उसका भावी संकल्प मूर्तरूप नहीं ले पाता।
ऐसी स्थिति में यह आकुल-व्याकुल होकर कभी भगवान को, कभी दैव को, कभी किन्हीं दूसरे निमित्तों को कोसता है, उन्हें दोषी ठहराता है, उनसे द्वेषवश संघर्ष करने
१. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'जीवन में कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता' लेख से
भावांश उद्धृत पृ. १४३
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