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________________ व्यावहारिक जीवन में-कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता : ३७ सब कुछ जानने-देखने लगता है; तथा परमार्थदृष्टि से कर्मबिज्ञान के रहस्य का सर्वेक्षण (पर्यवेक्षण) करके वह कामभोगों की आकांक्षा नहीं करता।' कर्मविज्ञान की व्यावहारिक जीवन में यही उपयोगिता है कि वह व्यक्ति को पद-पद पर संभलकर, यतना से चलने की सलाह देता है। वह ऐसा पथ प्रदर्शक है, जो यह बता देता है कि इस मार्ग पर जाने से अमुक पापकर्म का बन्ध होगा, इस मार्ग पर चलने से सत्य-अहिंसा आदि शुद्ध धर्मों (द्ध कर्मों) को जीवन में उतारते समय शुभाशुभ कर्मबन्ध से बचने से पूर्वबद्ध कर्मक्षय का मार्ग प्रशस्त होगा। दैनन्दिन जीवन में कर्मसिद्धान्त का उपयोग दैनन्दिन जीवन-व्यवहार में कर्मसिद्धान्त का क्या उपयोग है ? इसे समझने के लिए एक दृष्टान्त ले लीजिए-एक व्यक्ति कहीं जा रहा है। रास्ते में उसकी असावधानी से किसी पत्थर की ठोकर लग गई। चोट लगन से वह थोड़ी देर तिलमिलाकर रह जाता है। वह यही सोचता है कि “मेरी अपनी गलती से ठोकर लगी है, इसमें किसी दूसरे का क्या दोष? किससे घृणा, विद्वेष या रोष करें? चोट लगी है तो इसे समभाव से, शान्ति से सह लेना ही बेहतर है। आखिरकार भूल तो मेरी अपनी ही है।" दैनन्दिन जीवन-व्यवहार में कर्मसिद्धान्त की यही उपयोगिता है। कोई रोग, दुःख, दैन्य, विपत्ति या संकट आ पड़ा, उस समय कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ यही सोचेगा-यह मेरे ही द्वारा पूर्वकृत कर्मों का फल है, इसलिए इसे शान्ति से,समभाव से भोग लेने-सह लेने में ही लाभ है। ऐसा करने से उक्त कर्मों का क्षय हो जाएगा और नये अशुभ कर्म नहीं बंधेगे। इसके विपरीत किसी भगवान पर, देव पर या किसी काल आदि निमित्त पर दोषारोपण किया, दूसरों को दोष दिया या घृणा की, दूसरों के प्रति बदला लेने की रोषयुक्त भावना जागी, तो पूर्वकृत कर्मों का क्षय होना तो दूर रहा, आगे के लिए और अधिक नये अशुभ कर्मों का बन्ध हो जाएगा। दुःख, विपत्ति, संकट या कष्ट के मूल कारण तो अपनी आत्मा में हैं, वे अपने द्वारा पहले किये हुए कर्म हैं। पूर्वजन्म में या इस जन्म में पहले जैसे कर्म किये हैं, उन्हीं के अनुसार ही तो इस आत्मा को दुःखे संकट आदि प्राप्त होते हैं। १. (क) विणएत्तु सोयं णिक्खम्म, एसमहं अकम्मा जाणति पासति। - (ख) पडिलेहाए णावकंखति, इह आगतिं गतिं परिण्णाय॥ २. कर्मवाद : एक अध्ययन (सुरेशमुनि) से भावांश उद्धृत ५.५५-५६ . ३. (क) 'जहा कडं कम्म तहासि भारे। . -मूत्रकृतग ५२६६.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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