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________________ ३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) मिलने लगता है, तब वे कर्मविज्ञान को अव्यवहार्य कहने लगते हैं। इस प्रकार अपनी दुर्वृत्ति और असदाचरण को छिपाने के लिए कर्मविज्ञान का गलत उपयोग किया जाता है, अथवा कर्मविज्ञान को कई भ्रान्तियों के साथ जोड़ दिया जाता है। कमसिद्धान्त का व्यावहारिक जीवन में प्रयोक्ता कैसा होता है? परन्तु यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि कर्मसिद्धान्त का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने वाला व्यक्ति शान्त, सुखी, अनुद्विग्न और आशायुक्त होता है। जिस व्यक्ति ने कर्मसिद्धान्त को हृदय से स्वीकार किया है और इस तथ्य को गहराई से समझ चुका है कि बुरे कर्म का फल बुरा होता है, वह भ्रष्टाचार, अनाचार, ठगी, दुराचार और अन्याय-अनीति को कदापि नहीं अपना सकता। वह अनैतिक या अप्रामाणिक व्यवहार नहीं कर सकता। वह लोभ या लोलुपता के वश होकर घी में चर्बी मिलान, टहेज कम लाने पर बहू को जलाकर या अन्य घृणित तरीकों से सताकर मार डालने जैसा जघन्यतम अपराध नहीं कर सकता। सार्वजनिक संस्थाओं में लाखों का दान करने वाला व्यक्ति ऐसे क्रूर और घृणित कार्य नहीं कर सकता, जिससे सारा कुल, वंश, जाति, धर्म और देश लांछित हो, जीवन पाप कर्मों से कलंकित हो। अतः हमें यह मानना होगा कि कर्म-सिद्धान्त को मौखिकरूप से स्वीकार करना एक बात है और उसे जीवन-व्यवहार में उतारना और दुष्कर्मों के समय तुरंत सावधान होकर उनसे दूर रहना, दूसरी बात है।' कर्मसिद्धान्त के अनुसार व्यावहारिक जीवन में चलते समय पद-पद पर सावधानी रखकर चले तो मनुष्य कर्मबन्ध से, खासतौर से पापकर्म-वन्ध से वहुत-कुछ अंशों में बच सकता है। जैन कर्म-सिद्धान्त पद-पद पर संभलकर चलने की प्रेरणा देता है आचारांग सूत्र में इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए कहा गया है-“देख! ऊर्ध्व (ऊपर) स्रोत (पापकर्मों के प्रवाह) हैं, अधः (नीचे) स्रोत हैं, तिर्यक दिशा (चारों दिशाओं) में स्रोत हैं, ऐसा कहा गया है। इन पाप प्रवाहों को ही स्रोत कहा गया है, जिनसे आत्मा के कर्मों का संग-बन्ध होता है। "इस स्रोत (कर्मप्रवाह) को रोकने (संवर) के लिए जो निष्क्रमण करता है अथवा पराक्रम करता है, वह महान् आत्मा अकर्मा (अबन्धक शुद्ध कर्म करने वाला) होकर १... कर्मवाद से भावांश उद्धृत पृ. १४९-१५० २. उढे सोता अहे सोता तिरिय सोता वियाहिया। __एते सोता वियखाया, जेहिं संगति पासहा॥ -आचारांग १/५/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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