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________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५२३ पाप और पुण्य-दोनों के फल में महदन्तर की समीक्षा यह सत्य है कि पाप और पुण्य दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर ही मुक्ति की मंजिल प्राप्त होती है, तथापि दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों के विपाक (फलभोग) में कितना और कैसा अन्तर है ? यह विपाक सूत्र के प्रथम और द्वितीय दोनों श्रुतस्कन्धों के कथानकों से स्पष्ट प्रतीत हो जाता है। दुःखविपाक के मृगापुत्र आदि कथानायकों को भी अन्त में मुक्ति प्राप्त होगी और सुखविपाक के सुबाहुकुमार आदि कथानायकों को भी मुक्ति प्राप्त होगी। दोनों प्रकार के कथानायकों की अन्तिम स्थिति एक-सी है। फिर भी चरम स्थिति प्राप्त करने से पूर्व पापकर्मियों के संसार-परिभ्रमण का जो कथाचित्र अंकित किया गया है, वह विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है। ___पापाचारी मृगापुत्र आदि की पूर्वभविक और इहभविक पापकर्मों की तथा उससे प्राप्त होने वाले अत्यन्त दुःखद कर्मफलों (विपाकों) की कथा अतीव रोमांचक है। फिर उन सबकी भविष्यकथा दिल दहलाने वाली है। उन सबको दीर्घ-दीर्घतरकाल तक घोरतर दुःखमय दुर्गतियों में अनेकानेक बार नरकों में, तिर्यंचों में, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनियों में बार-बार भटकना होगा। मनुष्यभव में भी अतीव दुर्बोधमय त्रासदायक विषम योनियों में असह्य यातनाएँ भोगनी होंगी। तब कहीं जाकर अन्त में उन्हें मनुष्यभव मिलेगा, जिसमें सर्वकर्मक्षय होने से सिद्धि-मुक्ति प्राप्त होगी।। यद्यपि सुखविपाक के सुबाहुकुमार आदि कथानायकों को भी दीर्घकाल तक संसार में रहना होगा, फिर भी उनके दीर्घकाल का अधिकांश भाग स्वर्गीय सुखों के उपभोग में अथवा सुखबहुल मानवभव में ही व्यतीत होने वाला है। पुण्यकर्म के फल से होने वाले सुखमय विपाक और पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःखमय विपाक की तुलना करके देखने पर ज्ञात होगा कि पाप और पुण्य दोनों बन्धनकारक होने पर भी दोनों के फलों में रात और दिन का, अन्धकार और प्रकाश जैसा अन्तर है। कहाँ मृगापुत्र आदि का असह्य दुःखों और यातनाओं से परिपूर्ण दीर्घकालिक भवभ्रमण और कहाँ सुबाहुकुमार आदि का सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण सुखमय संसार! फिर आध्यात्मिक विकास करने का सुअवसर, सद्बोध और सत्संग! दोनों की तुलना करने से पाप और पुण्य के क्रमशः दुःखद और सुखद फल का अन्तर स्पष्टतया समझ में आ सकता है।' १. विपाकसूत्र श्रु. २ के सारसंक्षेप (पं. रोशनलालजी) से पृ. ११४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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