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________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५०५ देवी की कुक्षि से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम रखा गया नन्दीषेण । बाल्यावस्था पार करके जब उसने यौवनवय में पदार्पण किया तो उसे युवराज-पद से अलंकृत किया। एक बार उसके मन में अपने पिता श्रीदाम नृप को मारकर स्वयं राजा बनने की हवस जागी। उसने राजा के परमविश्वस्त चित्र नामक नाई को बुलाकर कहा- राजा का क्षौरकर्म करते समय अगर उनकी गर्दन में उस्तरा घुसेड़ कर उनका काम तमाम कर दोगे तो तुम्हें मैं आधा राज्य दे दूंगा। फिर तुम उत्कृष्ट कामभोगों का उपभोग करते हुए चैन की बंसी बजाना। चित्र नाई ने युवराज का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कुछ समय पश्चात् चित्र नाई के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ। राजा को विश्वस्त सूत्रों से इस षड्यंत्र का पता लग गया तो मुझे बुरी मौत मारेंगे। अतः भयभीत होकर एकान्त में राजा से सारी बातें सविनय कह दीं। श्रीदाम नरेश ने युवराज का अत्यन्त गर्म रसों से राज्याभिषेक करवाकर मरवा डाला श्रीदाम नरेश ने इस पर विचार करके अपने अनुचरों द्वारा नन्दीषेण को गिरफ्तार करवाया और राज्याभिषेक कराने की घोषणा करवाई। एक विशाल चौक में अग्नि के समान तपे हुए लोहे के सिंहासन पर उसे बिठाया। चारों ओर नर-नारियों के झुंड के झुंड दर्शक के रूप में खड़े थे। फिर राजा के आदेश से नन्दीषेण पर किसी राजपुरुष ने गर्मागर्म लोहे के रस से परिपूर्ण, किसी ने गर्म तांबे, रांगे, शीशे के रस से एवं अत्युष्ण जल से परिपूर्ण, तथा क्षारयुक्त जल से परिपूर्ण आग के समान तपे हुए कलशों से उसके मस्तक पर गर्म रस उड़ेलकर राज्याभिषेक किया। तदनन्तर किसी ने लोहे की संडासी से पकड़कर अग्नि के समान तपतपाते लोहे के अठारह लड़ियों वाला हार, नौ लड़ियों वाला अर्धहार तथा तीन लड़ियों वाला हार पहनाए । किसी ने लोहे की गर्मागर्म लम्बी माला तथा किसी ने करधनी पहनाई। किसी ने मस्तक के पट्टवस्त्र अथवा आभूषणविशेष एवं किसी ने मुकुट पहनाया। इस प्रकार नन्दीषेण ने अपने पापकर्मों के फलस्वरूप यहीं महाभयंकर यातना भोगकर तड़फते हुए प्राणत्याग किया। नदीषेण का अन्धकारपूर्ण भविष्य, अन्त में उज्ज्वल बनेगा इसके भविष्य के विषय में भगवान् ने बताया- इस प्रकार नन्दीषेण (नन्दीवर्द्धन ) कुमार ६० वर्ष की परम आयु भोगकर यहाँ से मरकर प्रथम नरक भूमि में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर मृगापुत्र के समान यावत् पृथ्वीकायिक आदि जीवों में लाखों बार उत्पन्न होगा। फिर हस्तिनापुर में एक मच्छ के रूप में उत्पन्न होगा, मच्छीमारों द्वारा वध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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