SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) किये जाने पर वह इसी हस्तिनापुर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा और सम्यक्त्व प्राप्त करेगा, कालधर्म पाकर सौधर्म स्वर्ग में देव बनेगा। वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर संयम ग्रहण करेगा। उत्कृष्ट संयम के प्रभाव से वह सिद्ध-बुद्ध एवं सर्वकर्म-मुक्त होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा ।' उम्बरदत्त : पूर्वभव में धन्वन्तरी नामक कुशल राजवैद्य इसके पश्चात् सप्तम अध्ययन उम्बरदत्त का है। उम्बरदत्त पूर्वभव में विजयपुर - नरेश कनकरथ का धन्वन्तरी नामक राजवैद्य था । वह कौमारभृत्य, शालाक्य, शाल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल, भूत विद्या, रसायन एवं बाजीकरण, इन आयुर्वेद के आठों अंगों का ज्ञाता था। साथ ही वह चिकित्सा में शिवहस्त, शुभहस्त एवं लघु-हस्तथा । धन्वन्तरी राजवैद्य द्वारा रोगियों को विविध मांस खाने का परामर्शरूप पापकर्म वह धन्वन्तरी वैद्य झौंपड़ी से लेकर महलों तक में रहने वाले गरीब, अमीर, सनाथ-अनाथ, सभी रोगियों की चिकित्सा करने से लोकप्रिय हो गया । किन्तु वह कई रोगियों को अनुपान में मत्स्य मांस खाने का, कितनों को कछुए के मांस खाने का, कइयों को ग्राह, मगर आदि जलचरों के मांस खाने का, कइयों को सुंसुमारों के मांस का तथा कइयों को बकरे आदि के मांस खाने का एवं प्रायः भेड़ों, गवयों, गायों, भैंसों, सूअरों, मृगों, खरगोशों आदि के मांस खाने का उपदेश एवं परामर्श देता था। इसी प्रकार कई रोगियों को अनुपान में तित्तरों, बटेरों, लावकों, कबूतरों, मुर्गों एवं मोरों तथा इसी भांति बहुत-से जलचरों, स्थलचरों, खेचरों आदि के मांस खाने का उपदेश- परामर्श देता था । इतना ही नहीं, धन्वन्तरी वैद्य स्वयं भी अनेकविध मत्स्य -मांसों, मयूर -मांसों तथा अन्य बहुत-से जलचर, खेचर एवं स्थलचर जीवों के मांसों से, तथा मत्स्यरसों एवं मयूररसों में पकाये हुए, तले हुए, तथा भुने हुए मांसों के साथ पांच प्रकार के मद्यों का आस्वादन, विस्वादन एवं परिभाजन करता (बांटता) हुआ एवं बार-बार उपभोग करता हुआ जीवनयापन करता था। १. देखें, वही नन्दीषेण (नन्दीवर्धन) के पूर्वभवाचरित पापकर्मों तथा इस भव में पितृवध करने के पापकर्म का फल, पृ. ७६, ७७ २. देखें, वही, श्रु. १, अ. ७, में उम्बरदत्त के पूर्वभव का वृत्तान्त : धन्वन्तरी राजवैद्य के रूप में, पृ. ८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy