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________________ कों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी सुखद-दुःखद फलों का मूल स्रोतः पुण्य-पाप कर्म भारतीय जन-जन के मन में यह धारणा बद्धमूल है कि प्राणिमात्र को सुख और दुःख के रूप में जो फल मिलता है, उसका मूल स्रोत पूर्वकृत पुण्यकर्म और पापकर्म हैं। फिर भले ही वे पूर्वकृत कर्म इस जन्म में किये हुए हों, या पूर्वजन्म या जन्मों में किये हुए हों। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है।' पापकर्मों का दुःखद फल : अनेक रूपों में मिलता है पापकर्मों के कारण बार-बार विविध दुर्गतियों और दुर्योनियों में जन्म-मरण का चक्र अबाधगति से चलता है। उन दुर्गतियों और दुर्योनियों में प्रायः दुर्बोधि, दुर्बुद्धि, दुश्चिन्ता, दुर्नीति एवं अज्ञानता तथा अन्धविश्वासग्रस्तता से वास्ता पड़ता है। आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण, आत्महित, आत्म-विश्वास, आत्मा पर सुश्रद्धा और अनुप्रेक्षा का कोई अवसर नहीं मिलता, ऐसे अन्धकारपूर्ण जीवन में। पापों से परिपूर्ण जीवन के कुसंस्कार भी एक जन्म में नहीं, अनेकानेक जन्मों में जाकर बदलते हैं। सुसंस्कारों का पाथेय पाप-कर्म के पथ पर चलने वाले भावान्ध पथिकों को नहीं मिलता, न ही सुसंस्कारों और दुव्यर्सन मुक्ति के अभ्यास में उनकी रुचि और श्रद्धा जागती है। उपनिषद की भाषा में-"उनके लोक में ज्ञानसूर्य का प्रकाश नहीं होता, वे अज्ञान के अन्धतमस् से आवृत रहते हैं, वे आत्महन्ता हो जाते हैं, अर्थात्-बार-बार आत्मगुणों की, आत्मा के स्व-भावो की हत्या करते रहते हैं।" ऐसे पापकर्म परायण लोगों को अपने कर्मों का दुःखद फल यहाँ भी कठोर मानसिक एवं कायिक तथा सामाजिक दण्ड के रूप में मिलता है और आगामी लोक या जन्म में भी कई गुना दुःख एवं त्रासपूर्ण दण्ड मिलता है। इतना कठोर दण्ड मिलने के -उत्तराध्ययन सूत्र ३२/७ १. 'कम्मं च जाइ-मरणस्स मूलं' २. असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽवृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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