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कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ४९१
बावजूद भी पापकर्मी सुधरता नहीं, बार-बार जूआ, चोरी, मांसाहार, मद्यपान, शिकार, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन इत्यादि दुर्व्यसनों में फंसकर पापकर्मों में वृद्धि करता रहता
है।
पुण्यकर्मों के उपार्जकों को उनका अनेकविध सुखद फल एवं आध्यात्मिक विकास भी प्राप्त होता है।
इसके विपरीत पुण्यकर्मों का उपार्जन करने वाले व्यक्तियों को अपने पुण्यकर्मों का सुखद फल इस लोक में भी मिलता है और आगामी भवों में भी । पुण्यकर्मकर्त्ता को बोधि, सुबुद्धि, नीति-न्याय-पथगामिता एवं सम्यकदृष्टि भी मिलती है । सुसंस्कारों का पाथेय भी प्राप्त होता है तथा आध्यात्मिक विकास करने का अवसर भी । तथा पूर्वकृत पुण्यराशि से प्राप्त मानवजन्म आदि की उपलब्धि को वे भोग-वासनाओं में अपव्यय न करके दान, शील, तप, भाव, परोपकार, सेवा, दया आदि सत्कर्मों में नियोजित करके शुभकर्मों की राशि में वृद्धि करते हैं, और यदा-कदा कर्मों का निर्जरण एवं संवर भी करते हैं।
दुःखविपाक और सुखविपाक के कथानायकों के जीवन में क्या विशेषताएँ और अन्तर हैं ?
यद्यपि पापाचारी और पुण्याचारी दोनों ही प्रकार के जीवों को अनेकानेक भवों में जन्म-मरण की घाटियों से पार होना पड़ा है, और अन्त में जाकर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यजन्म मिलने पर उत्तम संयमाचरण से मुक्ति प्राप्त हुई है, परन्तु पापाचारी को प्रायः दुःखद और दुर्बोध के संयोग मिलते रहे हैं, और पुण्याचारी को सुखद और सुबोधि के संयोग मिले हैं, यही दोनों के जीवन में अन्तर रहा। इसी कारण एक का नाम दुःखविपाक और दूसरे का सुखविपाक रखा गया है।
दुःखविपाक में पापकर्मों के कारण प्राप्त दुःखदायक फलों का वर्णन
समवायांग सूत्र के १२वें समवाय में इन दोनों (दुःखविपाक और सुखविपाक) सूत्रों में वर्णित विषयों का परिचय देते हुए कहा गया है - " दुःखविपाकों (के 90 अध्ययनों) में प्राणातिपात (हिंसा), असत्य, चोरी, परस्त्रीगमन, महातीव्रकषाय, इन्द्रिय-विषय- सेवन, प्रमाद, पापप्रयोग, और अशुभ अध्यवसायों (परिणामों) से संचित पापकर्मों के उन पापरूप अनुभागों - फलविपाकों का वर्णन किया गया है; जिन्हें नरकगति और विभिन्न तिर्यञ्चयोनियों में अनेक प्रकार के सैकड़ों संकटों की परम्पराओं से गुजरकर भोगना पड़ा। वहाँ की घाटियाँ पार करके मनुष्यभव में आने पर भी उन (पापाचारी) जीवों को ( पूर्वकृत) पापकर्मों के शेष रहने से अनेकानेक पापरूप अशुभ
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