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पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४८९
है। (४) पापोत्पादक भाषा कदापि नहीं बोलनी चाहिए; क्योंकि वह पापकर्मबन्धजनक तथा कटु फलदायिनी होती है। (५) दो हजार भिक्षुओं को पूर्वोक्त रीति से जो प्रतिदिन मांस-भोजन कराता है; उसके हाथ रक्त लिप्त होते हैं, वह लोकनिन्ध है, क्योंकि मांस से भोजन तैयार होता है,-पुष्ट भेड़े को मारकर नमक-तेल आदि के साथ पकाकर मसालों के बघार देने से, वह भी हिंसा जनित अभक्ष्य खाद्य है। (६) जो बौद्ध भिक्षुक यह कहते हैं कि पूर्वोक्त रीति से गृहस्थ द्वारा तैयार किया हुआ आमिषभोजन करते हुए भी हम पापलिप्त नहीं होते, वे पुण्य-पाप के तत्त्व से अनभिज्ञ, अनार्य प्रकृति के, अनार्यकर्मी, रसलोलुपी एवं स्व-पर-वञ्चक हैं। अतः मांस हिंसाजनित, रौद्रध्यान का हेतु, अपवित्र, निन्द्य, अनार्यजन-सेवित एवं नरकगतिरूप घोर फल देने का कारण है। मांसभोजी आत्मार्थी नहीं होता, वह आत्मद्रोही, आत्महन्ता, और आत्मकल्याणद्वेषी है। वह मोक्षमार्ग का तो दूर रहा, नीतिन्यायमार्ग का भी आराधक नहीं है।'
दशवैकालिक सूत्र में कर्मबन्ध के मूल कारणभूत कषाय का सामान्यफल बताते हुए कहा गया है- क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों का निग्रह न किया जाए तो ये पुनर्जन्म की जड़ों को सींचते हैं।
____ इस प्रकार विभिन्न धर्मशास्त्रों में उल्लिखित पुण्य-पापकर्मों के प्राप्त होने वाले फल को समझना चाहिए, और उनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
१. सूत्रकृतांग सूत्र श्रु. २, अ. ६, सू. २६ से ३८ तक मूलपाठ व विवेचन का सारांश, पृ. १७७
(आ. प्र. समिति, ब्यावर) २. "चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स।" . -दशवैकालिक ८/३९
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