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________________ ४८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) 'मनुस्मृति' आदि वैदिक धर्म ग्रन्थों में भी वैडालवृत्तिक तथा हिंसा-प्रेरक ब्राह्मणों को भोजन कराने तथा करने वाले दोनों को नरकगामी बताया है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में भी ऐसे कुमार्ग-प्रेरक एवं पशुवधादि-प्ररूपक ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल नरकगति बताया है। ' नरक गमन रूप पापफल के चार कारण स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान में नरकगति (आयु) प्राप्त होने के चार कारण बताये गये हैं- (१) महारम्भ से, (२) महापरिग्रह से, (३) पंचेन्द्रिय जीवों के वध करने से और (४) मांसाहार करने से। बौद्धभिक्षुओं द्वारा प्रतिपादित अपसिद्धान्तों का सारांश आर्द्रककुमार के साथ बौद्धभिक्षुओं का संवाद हुआ, उसमें बौद्धभिक्षु ने अपने चार अपसिद्धान्त प्रस्तुत करते हुए कहा । उसका सारांश इस प्रकार है-( १ ) कोई व्यक्ति खली के पिण्ड को पुरुष तथा तुम्बे को कुमार समझकर उसे शूल से बींधकर पकाये तो प्राणिवध के पाप से लिप्त होता है, (२) किन्तु कोई व्यक्ति पुरुष को खली का पिण्ड तथा कुमार को तुम्बा समझकर पकाए तो वह प्राणिवध के पाप से लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार (३) कोई पुरुष मनुष्य या बालक को खली का पिण्ड समझकर पकाये तो वह भोजन पवित्र है और बौद्धभिक्षुओं के लिए भक्ष्य है, और (४) इस प्रकार (मांस) भोजन तैयार करके जो प्रतिदिन दो हजार भिक्षुओं को खिलाता है, वह महान् पुण्य स्कन्ध प्राप्त करके आरोप्य देव होता है।" बौद्धभिक्षु-निरूपित अपसिद्धान्तों का खण्डन आर्द्रक मुनि ने इन चारों अपसिद्धान्तों का खण्डन किया, उसका सारांश इस प्रकार है-(१) प्राणिघात जन्य आहार संयमी भिक्षुओं के लिए अयोग्य है, जो लोग मांस का सेवन करते कराते हैं, वे पुण्य-पाप को नहीं जानते हुए पापकर्म का अर्जन करते हैं। तत्त्वज्ञान में निपुण साधु क्या, गृहस्थी भी मांस खाने की इच्छा नहीं करते। फिर ऐसे मांसभक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है। (२) प्राणिघात से पाप नहीं होता, इस प्रकार कहने-सुनने वाले अबोधि बढ़ाते हैं, (३) खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि या पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि सम्भव ही नहीं है। ऐसा कथन भी आत्मवंचनापूर्ण और असत्य १. तेहि भोजिताः कुमार्ग-प्ररूपण-पशुवधादावेव कर्मोपचय- निबन्धनेऽशुभव्यापारे प्रवर्तन्ते, इत्यत्प्रवर्त्तन तस्तद्भोजनस्य नरकगति हेतुत्वमेव" - उत्तराध्ययन. अ. १४ गा. १२ टीका २. स्थानांगसूत्र स्थान ४, उ. ४, सू. ६२८ : " चउहिं ठाणेहिं जीवा नेरइयाउयत्ताए कम्मं पगति, तं जहा-महारंभत्ताए, महापरिग्गहयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं।” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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