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________________ पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४८७ पशुवध-समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन कराने के पापकर्म का फल . सूत्रकृतांगसूत्र के आर्द्रकीय अध्ययन में पशुवध-समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल बताते हुए पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष प्रस्तुत किया गया है पूर्वपक्ष-ब्राह्मणमन्तव्य-"जो पुरुष प्रतिदिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन कराता है; वह महान् पुण्यपुंज उपार्जित करके देव बनता है, यह वेद-वचन है।" उत्तरपक्ष-आर्द्रकमुनि-कथन-“बिडाल जैसी वृत्ति वाले तथा मांसादि सरस, स्वादिष्ट भोजन के लिये क्षत्रियादि कुलों में घूमने वाले दो हजार शील विहीन (तथाकथित स्नातक) ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराने वाला यजमान (दाता) मांसलुब्ध प्राणियों से व्याप्त (प्रगाढ़) अप्रतिष्ठान नामक नरक में निवास करता है, जहाँ वह परमाधार्मिक नरकपालों द्वारा तीव्रयातना (प्रगाढ़ वेदना) भोगता रहता है। दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप (शासक) एक भी कुशील व्यक्ति (तथाकथित विप्र) को भोजन कराता है, वह अन्धकारयुक्त तामस नरक में जाता है, फिर (देवलोकों) देवों में जाने की तो बात ही कहाँ ?" तात्पर्य यह है कि उस युग में ब्राह्मण यज्ञ-यागादि में पशुबलि (पशुवध) करने की प्रेरणा देते थे और स्वयं भी मांस-भक्षण करते थे। वे मांस भोजन आदि की प्राप्ति के लिये क्षत्रियादि कुलों में घूमा करते थे। आचार से भी वे शिथिल हो गए थे। इसलिए ऐसे दाम्भिक ब्राह्मणों को भोजन कराने वाले तथा स्वयं मांसभोजन करने-कराने वाले व्यक्ति को नरकगामी बताया है। १. (क). सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए माहणाणं। ते पुण्णखंदं सुमहऽचिणित्ता भवति देवा इति वेयवाओ। १४३ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए कुलालयाणं। ते गच्छति लोलुव-संपगाढ़े तिब्वाभितावी पुराकदाभिसेवी ॥४४॥ दया वरं धम्म दुगुंछमाणे, वहावहं धम्म पसंसमाणे। एग पि जे भोययंति असीलं, णिवो निसं, जाति, कतो सुरेहिं ? ॥४५॥ -सूत्रकृतांग, श्रु २, अ. ६, सू. ४३-४४-४५ (ख) सूत्रकृतांग-शीलांक वृत्ति पत्र ४00 का सारांश (ग) धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छादिको लोकदम्भकः। वैडालवृत्तिकः ज्ञेयो हिंसः सर्वाभिसंधिकः॥ ये बकवतिनो विप्राः ये च मार्जारलिंगिनः। ते पतन्त्यन्धतामिसे, तेन पापेन कर्मणा॥ न वार्य्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालवृत्तिके द्विजे। न बकवृत्तिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्॥ -मनुस्मृति अ. ४, श्लो. ९५, ९७,९८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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