SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४८१ कन्दर्पी आदि पाप भावनाओं से अर्जित पापकर्म का फल कान्दर्पी आदि अप्रशस्त पाप-भावनाओं का दुष्फल बताते हुए कहा गया है-“जो साधक कन्दर्प (काम) कथा करता है, अट्टहासपूर्वक हंसता है, व्यंग्योक्ति पूर्वक बोलता है, कामोत्तेजक उपदेश देता है, कामभोगों की प्रशंसा करता है, तथा कौत्कुच्य (हास्योत्पादक कुचेष्टाएँ) करता है, एवं हास्य, विकथा, शील और स्वभाव से दूसरों को विस्मित करता है या हंसाता है, वह कान्दर्पी भावना का आचरण करता है।" “जो विषयसुखों के लिए तथा रस और समृद्धि के लिए यंत्र, योग (तंत्र), भूति ( भस्म आदि मंत्रित करके देने) का प्रयोग करता है, वह आभियोगी भावना का आचरण करता है। जो ज्ञान की, केवलज्ञानी की, धर्माचार्य की, संघ की तथा साधुओं की निन्दा (अवर्णवाद) करता है वह मायाचारी किल्विषिकी भावना का आचरण करता है। जो सतत क्रोध की परम्परा को फैलाता - बढ़ाता रहता है, तथा जो निमित्त ( ज्योतिष आदि) विद्या का प्रयोग करता है, वह इन कारणों से आसुरी भावना का आचरण करता है। इसी प्रकार जो शस्त्र प्रयोग से, विषभक्षण से या पानी में डूबकर आत्महत्या करता है तथा जो साध्वाचारविरुद्ध भाण्ड- उपकरण रखता है, वह मोही भावना का आचरण करता हुआ अनेक जन्ममरणों का बन्ध करता है, तथा उनका कटुफल प्राप्त करता है । " तात्पर्य यह है कि कान्दर्पी, आसुरी, आभियोगी, किल्विषिकी और सम्मोह - भावना से द्विविध मोहकर्म का उत्कट बन्ध होता है, और उसका कटुफल उसे आगामी जन्मों में भोगना पड़ता है। मूलाराधना, प्रवचनसारोद्धार आदि में भी इन्हीं कुभावनाओं का निरूपण मिलता है। स्थानांग सूत्र में स्पष्ट कहा है कि चारित्र के फल का नाश (अपध्वंस) चार प्रकार का होता है - ( १ ) आसुरीभावनाजन्य आसुरभाव से, (२) अभियोगभावनाजन्य संगात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते । क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृति विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ उत्तराध्ययन अ. ३६. गा. २६३ से २६७ 9. २. (क) उत्तराध्ययन अ. ३६, गा. २६३ से २६७, बृहद्वृत्ति पत्र ७०९ Jain Education International (ख) मूलाराधना ३ / १७९, १८२, १८३,१८४ (ग) प्रवचनसारोद्धार गा. ६४१, ६४४, ६४५, ६४६ वृत्ति १८१, १८२ । - गीता २/६२-६३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy