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________________ ४८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) आभियोगी भाव से, (३) सम्मोहभावनाजन्य सम्मोहभाव से और (४) किल्विषभावनाजन्य किल्विषभाव से। इन चारों कुभावनाओं के प्रत्येक के कर्मबन्ध के चार-चार कारण भी बताए हैं। अर्थात्-इन चार कुभावनाओं से असुरादि में जन्म लेने योग्य कर्म का उपार्जन करता है।' पौण्डरीक के अयोग्य : चार प्रकार के पुरुष और उनको प्राप्त होने वाला कटुफल सूत्रकृतांग सूत्र के पीण्डरीक अध्ययन में पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे पुरुष को पीण्डरीक (भाव-पौण्डरीक-रत्नत्रय तथा अध्यात्म साधना में श्रेष्ठ) के अयोग्य बताते हुए उनके प्रतिफल का निरूपण किया गया है-प्रथम पुरुष तज्जीव-तच्छरीरवादी, द्वितीय पुरुष-पंचभौतिकवादी, तृतीय पुरुष-ईश्वरकारणवादी और चतुर्थ पुरुषएकान्त नियतिवादी; ये चारों ही प्रकार के व्यक्ति भिन्न-भिन्न बुद्धि, अभिप्राय, शील (आचार), दृष्टि तथा रुचि वाले एवं पृथक्-पृथक आरम्भ धर्मानुष्ठान वाले तथा विविध अध्यवसाय (पुरुषार्थ) वाले होते हैं। ये माता-पिता आदि गृहस्थाश्रयी कुटुम्बी जनों तथा पूर्वसंयोगों को तो छोड़ देते हैं, किन्तु आर्यमार्ग (मोक्षपथ) को जब तक प्राप्त नहीं करते, तब तक वे न तो इस लोक के रहते हैं और न ही परलोक के (अर्थात्-वे न तो इस लोक को सार्थक कर पाते हैं और न परलोक को ही) बल्कि बीच में ही त्रिशंकु की तरह सांसारिक कामभोगों में ग्रस्त होकर नानाविध कष्ट पाते हैं, परलोक में भी मिथ्यात्व मोहनीय कर्मवश तीव्र रसानुभाव के कारण तीव्र-कर्मबन्ध करके उस कर्म का तीव्र कटुफल पाते हैं। तीन स्थानः अधर्म पक्ष, धर्मपक्ष एवं मिश्रपक्ष सूत्रकृतांगसूत्र में क्रिया स्थानों के सन्दर्भ में तीन प्रकार के स्थान के अधिकारियों के स्वरूप, गुणावगुण एवं कर्मफल का निरूपण किया गया है। वे तीन प्रकार हैं-(१) अधर्मपक्ष स्थान, (२) धर्मपक्ष स्थान, और (३) मिश्रपक्ष स्थान। अधर्मपक्ष स्थान के अधिकारी तथा उनकी चर्या एवं प्रकार अधर्म पक्ष स्थान के अधिकारी वे हैं, जो अठारह ही पापस्थानों का अधिकाधिक सेवन करते रहते हैं। वे हैं-प्रातिपथिक (राहगीरों को लूटने वाले), सन्निधछेदक, (चोर), गिरहकट, शौकरिक (सूअर पालने वाला), वागुटिक (पारधी), शाकुनिक (बहेलिया), मात्स्यिक (मच्छीमार), गोघातक (कसाई), श्वपालक (शिकारी कुत्ते पालने वाला),तथा १. स्थानांग. स्था. ४, उ. ४ सू. ५६६ से ५७0 तक २. देखें, सूत्रकृतांग सूत्र श्रु.२, अ.१ सू.६४८ से ६६६ तक के मूल एवं विवेचन का सारभूत अंश, पृ.२०,२५,२८,३१,४३,४९. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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