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४८० कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
( गुणगुरु व्यक्ति की प्रशंसा) (२) संज्वलन (गुण प्रकाशन), (३) भक्ति (हाथ जोड़ना, गुरुजनों आदि को आदर देना, आने पर खड़ा होना आदि), (४) बहुमान ( आन्तरिक प्रीति विशेष या वात्सल्यवश मन में आदरभाव ) से सम्पन्न होने के कारण वह देव सम्बन्धी सुगति (आयु) का बन्ध करता है। श्रेष्ठगति और सिद्धि का मार्ग प्रशस्त (शुद्ध) करता है । विनयपूर्वक सभी कार्यों को साधता है। अन्य अनेक जीवों को विनयी बना देता है । '
दोषों की आलोचना रूप पुण्योपार्जन का फल
आलोचना (गुरुजनों के समक्ष दोष- प्रकाशन) रूप पुण्य का फल बताते हुए कहा गया है-“आलोचना से मोक्ष-मार्ग में विघ्नकारक और अनन्त संसार वर्द्धक मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य को निकाल देता है और ऋजुभाव को प्राप्त होता है। ऋजुता ( सरलता) को प्राप्त जीव माया रहित होता है। अतः वह स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का बन्ध नहीं करता। यदि पूर्व बद्ध हो तो उसकी निर्जरा करता है।"२ पंचेन्द्रिय एवं मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष का प्रतिफल
पांचों इन्द्रियों और मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष का प्रतिफल बताते हुए कहा गया है- “ इस प्रकार इन्द्रियों और मन के जो विषय रागी ( राग-द्वेष कर्ता) मनुष्य के लिए दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतरागी (रागद्वेष रहित) पुरुष के लिए कदापि किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते। "३
कामासक्ति का इहलौकिक पारलौकिक दुष्फल
कामासक्त मनुष्यों को उनसे होने वाले दुष्परिणाम को बताते हुए कहा गया है - "जो व्यक्ति कामगुणों (शब्द-रूप- रसादि विषयों) में आसक्त है वह क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद (कामविकार) तथा (हर्ष-विषाद आदि) विविध भावों (अनेक प्रकार के विकारों) को और उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त वह कामासक्त व्यक्ति लोक में करुणास्पद ( दयनीय), दीन, लज्जित और अप्रिय होता है। गीता में भी विषयों का चिन्तन करने से लेकर बुद्धिनाश और विनाश रूप फल तक का इसी प्रकार वर्णन मिलता है। "
१.
२.
३.
४.
उत्तराध्ययन सूत्र अ.२९ सू. ४ । वही, अ.२९, सू.५ ।
उत्तराध्ययन, अ. ३२ गा.१००।
(क) वही, अ. ३२ गा.१०२-१०३. (ख) ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
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