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________________ मुनिधर्मी कामभोगासक्त होकर स्वयं को महादुःख सागर में धकेलता है मुनिधर्म को अंगीकार करके जो व्यक्ति कामभोगों का सेवन करता है, इन्द्रिय विषयों में जिसकी लोलुपता है, तन-मन में चंचलता है, अन्य जन्मों के कुसंस्कारवश जो प्राणी परिणाम, अपनी शक्ति, कार्य- अकार्यविवेक को तिलांजलि देकर अदूरदर्शिता अपनाता है, वह स्वयं जन्म-मरण के महादुःख सागर में गोते खाता है। यही तथ्य भगवती सूत्र में व्यक्त किया गया है कि जो दुःखित (कर्मबद्ध) है, वही दुःख (कर्मबन्धन का दुःख रूप फल) पाता है, जो दुःखित (बद्ध) नहीं है, वह दुःख (कर्मबन्ध जनित दुःखरूप फल) को नहीं पाता।' पुण्य आधाकर्मी आहार सेवन का दुष्फल भगवती सूत्र में आधाकर्मी आहार सेवन का फल बताते हुए कहा गया हैआधाकर्मी आदि सदोष आहार के सेवन से अल्पायुकर्म का बन्ध होता है। तथा उसका कटु फल भी भोगना पड़ता है। सभी गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण रूप फल अवश्यम्भावी और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४७९ आचारांग सूत्र में कर्मों के विविध फलों के कारण सभी गतियों और योनियों में परिभ्रमण करने की अवश्यम्भाविता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं-"स्थावर (पृथ्वीकाय आदि) जीव (कर्मों के कारण ) त्रस (द्वीन्द्रियादि) के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं, इसके विपरीत सजीव भी स्थावर जीवों के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों के कारण पृथक-पृथक रूप में संसार में स्थित हैं अथवा अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों के कारण पृथक-पृथक रूप रचते हैं । ३ 9. गुरु-साधर्मिक शुश्रूषा से उपार्जित पुण्य का फल गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा रूप पुण्य का फल बताते हुए उत्तराध्ययन में कहा है - "गुरु और साधर्मिकों की शुश्रूषा से जीव विनय-प्रतिपत्ति (विनय का प्रारम्भ या - अंगीकार) को प्राप्त होता है । विनय - प्रतिपन्न व्यक्ति (परिवादादि रूप ) आशातना से रहित स्वभाव वाला होकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव से सम्बन्धित दुर्गति ( दुरवस्था ) का निरोध कर देता है । विनयप्रतिपत्ति के चार अंगों ( 9) वर्णश्लाघा २. ३. Jain Education International (क) देखें - आचारांग श्रु. १, अ. ५, उ. ६ का विवेचन पृ. २१० (ख) दुक्खी दुक्खेण फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेण फुडे । भगवती सूत्र श. २ उ. ६ सू. २१० आचारांग श्रु. १ अ: ९, उ. १ सू.२६७ । For Personal & Private Use Only - भगवती सूत्र ७/१ www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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