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________________ ४७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) परन्तु प्रायः यह देखा जाता है कि उन प्राणियों की हिंसाजन्य चिकित्सा कराने पर भी रोग नहीं जाता; क्योंकि रोग का मूल कारण विविध कर्म हैं; उनका क्षय या निर्जरा हुए बिना रोग मिटेगा कैसे? इसीलिए मूल में कहा गया है-"संसार में (कर्मों के कारण) जीव बहुत ही दुःखी हैं। (बहुत-से) मनुष्य कामभोगों में (जिजीविषा में) आसक्त हैं। वे इस (निर्बल और निःसार तथा स्वतः नष्ट होने वाले) शरीर को सुख देने के लिए अन्य प्राणियों का वध करते हैं, (अथवा कर्मोदयवश अनेक बार वध को प्राप्त होते हैं)। वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है। इसलिए वह अज्ञानी (वेदना के उपशमन के लिए) प्राणियों को कष्ट देता है, (अथवा प्राणियों को क्लेश पहुँचाने में वह धृष्ट-बेरहम) हो जाता है। इन पूर्वोक्त रोगों को उत्पन्न हुए जानकर (उन रोगों की वेदना से) आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को) परिताप देते हैं। तू (विशुद्ध विवेक दृष्टि से) देख ! ये (प्राणिघातक चिकित्सा विधियाँ कर्मोदय जनित रोगों का शमन करने में पर्याप्त) समर्थ नहीं हैं। अतः जीवों के लिए परितापकारी इन (पापकर्मजनक चिकित्सा विधियों) से दूर रहना चाहिए। यह (हिंसामूलक चिकित्सा) महाभय रूप है।'' दूसरों को जिस रूप में पीड़ित करता है, वह उसी रूप में पीड़ा भोगता है __आगे आचारांग सूत्र में यह भी बताया है कि दूसरों को मारने, सताने, डराने-धमकाने, गुलाम बनाने, जबरन हुक्म चलाने, परिताप देने, अपने गिरफ्त में लेने वाले को उसी रूप में (अर्थात्-कृत-कर्म से रूप में) स्वयं को उसका फल भोगना पड़ता है। क्योंकि परमार्थ दृष्टि से हन्ता (हनन कर्ता) और हन्तब्य (जिसका हनन करना है) दोनों आत्मा की दृष्टि से एक हैं। इसका फलितार्थ यह है कि “तुमने दूसरे जीव को जिस रूप में वेदना दी है, तुम्हारी आत्मा को भी उसी रूप में वेदना होगी, वेदना भोगनी होगी।" इसका एक भावार्थ यह भी है कि “तू किसी अन्य की हिंसा करना चाहता है, परन्तु यह उसकी (अन्य की) हिंसा नहीं, तेरी शुभ प्रवृत्तियों की हिंसा है। तेरी हिंसा वृत्ति एक तरह से आत्म (स्व-) हिंसा ही है।''२ भगवती सूत्र में इसी दृष्टिकोण से कहा गया है-दूसरों के लिए समाधिकारक सुख प्रदान में निमित्त व्यक्ति उसी प्रकार की समाधि प्राप्त करता है। १. देखें-"अट्टे से बहुदुक्खे इतिबाले पकुव्वति । एते रोगे बहु णच्चा आतुरा परितावए। णालं पास। अलं तवेतेहिं। महब्भयं। णातिवादेज्ज कंचणं ।'' -आचारांग श्रु.१ अ.६, उ.५, सू.१८० का विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ.१९६-१९८ २. देखें-तुमंसि नाम तं चेव (सच्चेव) जं हंतव्वं ति मनसि इत्यादि मूलपाठ तथा विवेचन। -आचारांग, श्रु.१, अ.५, उ.५, सू.१७० (आ. प्र. स. ब्यावर) पृ.१८२ ३. “समाहिकारए णं तमेव समाहि पडिलब्भइ।"-भगवती सूत्र श.७ उ.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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