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४६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
उज्जयिनी के अहंकारी राजा प्रजापाल ने अपने मत का विरोध करने से रोषवश कर्मसिद्धान्तविज्ञ अपनी पुत्री मैनासुन्दरी का विवाह कोढ़ी श्रीपाल (उम्बरराणा) के साथ कर दिया। मैनासुन्दरी की प्रेरणा से श्रीपाल ने आयम्बिल तप सहित नवपद की आराधना की। उसके प्रभाव से उसके अशुभ कर्म कट गए, शुभ कर्म प्रबल हो गए। फलतः सात सौ कोढ़ियों सहित उसका कुष्ट रोग दूर हो गया। उस पुण्यकर्म के प्रभाव से श्रीपाल सुख-शान्ति का अनुभव करने लगा।
यह था - अशुभ कर्म (पाप) बन्ध का शुभ (पुण्य) फल विपाक के रूप में रूपान्तर । '
पापकर्म लिप्त प्रदेशी अरमणीय से रमणीय बनकर शुभफलभागी बना
प्रदेशी राजा केशी श्रमण मुनि के सम्पर्क में आया, उससे पूर्व वह बहुत क्रूर और नास्तिक बना हुआ था। चित्त प्रधान के निमित्त से वह महामुनि केशी श्रमण के सम्पर्क में आया । धीरे-धीरे राजा प्रदेशी का जीवन परिवर्तित हो गया। वह परम आस्तिक, सम्यग्दृष्टि एवं श्रावकव्रती बन गया। जब वह केशी श्रमण के दर्शन करके अपने घर लौटने लगा तो उन्होंने कहा - "राजन् प्रदेशी ! (इससे पूर्व तुम पापकर्मों में लिप्त होने के कारण अरमणीय बने हुए थे, किन्तु अब तुम ) जीवन के पूर्वकाल में (पुण्यकर्मों) से रमणीय बनकर जीवन के उत्तरकाल में (पुनः पापकर्मों से) अरमणीय मत बन जाना। प्रदेशी ने वही किया। फलतः वह पुण्यकर्म के फलस्वरूप मरकर सूर्याभ देव बना, देवलोक प्राप्ति रूप पुण्यफल भागी बना।
तात्पर्य यह है कि हिंसा आदि पापकर्मों के आचरण से प्रदेशी नृप अरमणीय बन गया था, उसका फल उसे कटुरूप में भोगना पड़ता । किन्तु प्रदेशी राजा ने भी अशुभ कर्म (पाप) बन्ध को शुभकर्म में परिणत करके शुभ (पुण्य) फल विपाक (फलभोग) कर लिया।
यह अशुभ के शुभ में रूपान्तर का ज्वलन्त उदाहरण है।
सुबाहुकुमार : प्राप्त भी शुभ, बद्ध भी शुभ कर्म और फलभोग भी शुभ
सुबाहुकुमार पूर्वजन्म में सुमुख नामक गृहपति था। उसने सुदत्तमुनि आदि सुपात्र निर्ग्रन्थ मुनियों को शुद्धभाव से आहारदान दिया था। उस पूर्वकृत पुण्य के फलस्वरूप इस
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२.
सिरि सिरिवाल कहा (रत्नशेखरसूरि ) से संक्षिप्त
(क) देखें- 'रायप्पसेणीयं सुत्तं' में प्रदेशी राजा का जीवनवृत्त
(ख) मा णं तुमं पदेसी ! पुव्वं रमणिज्जे भवित्ता, पच्छा अरमणिज्जे भवेज्जासि !
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- राजप्रश्नीय ४ / ८२
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