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पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ४६१ जन्म में वह हस्तिशीर्ष नगर के राजा अदीनशत्रु के पुत्ररूप में जन्मा। सुखभोगों में पला। गृहस्थोचित श्रावक धर्म का पालन किया।
एक बार भगवान् महावीर के मुख से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर वह विरक्त हुआ। संयमाराधना करके प्रथम देवलोक में गया।
यह हुआ सुबाहुकुमार द्वारा पूर्वकृत शुभ (पुण्य) कर्म के फलस्वरूप शुभ फल और पुनः शुभकर्म के कारण देवलोक रूप शुभ फल की प्राप्ति, यानी बद्धकर्म भी शुभ और फलभोग (विपाक) भी शुभ का ज्वलन्त उदाहरण!' कालसौकरिक : बद्ध है अशुभ (पाप) कर्म और फलभोग भी अशुभ का प्रतीक
बंधा है, अशुभ कर्म और उसका फलभोग भी अशुभ; इस विकल्प के सम्बन्ध में राजगृह निवासी कालसौकरिक (कसाई) का उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। वह पूर्वकृत पापकर्मवश कसाई के यहाँ जन्मा और कसाई का ही धंधा करने लगा। फलतः इस जन्म में भी पापकर्म करके उसके फलभोग के लिए नरक का मेहमान बना। 'जैसा कर्म, वैसा ही फलभोग' में परिष्कार करना उचित
पूर्वोक्त चारों विकल्पों में शुभ से अशुभ फलभोग प्राप्ति तथा अशुभ से शुभफल भोग प्राप्ति- ये दोनों ही विकल्प इस एकान्तवाद का खण्डन करते हैं कि "जैसा कर्म किया है, वैसा ही फल भोगना पड़ता है।" इस सूत्र में इतना-सा परिष्कार कर दिया जाए तो यह एकान्तिक के बदले अनेकान्तिक बन सकता है-'कर्म के उदय में आने अर्थातफलप्रदानोन्मुख होने से अव्यवहित पूर्व में जैसा भी पुण्य या पापकर्म किया होता है या जिस प्रकार के परिणामों का उत्कर्षण-अपकर्षण किया होता है, तदनुसार उसे शुभ या अशुभ फल भोगना पड़ता है।' पूर्वबद्ध कर्मों का फल उसी रूप में भोगना आवश्यक नहीं .... यह आवश्यक नहीं है कि पूर्व में बंधे हुए शुभ (पुण्य) या अशुभ (पाप) कर्म उसी रूप में भोगने पड़ें। प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान में अपने शुभ कर्मों द्वारा पूर्व में बांधे हुए सजातीय कर्मों को बदलने तथा स्थिति एवं अनुभाग (रस) को घटाने, बढ़ाने तथा क्षय करने में पूर्ण स्वतन्त्र है, समर्थ है। प्रत्येक व्यक्ति पूर्वजन्म में आचरित दुष्प्रवृत्तियों के कारण बांधे हुए अशुभ एवं दुःखद पापकर्मों की स्थिति एवं अनुभाग (रस) को वर्तमान १. देखें-सुखविपाक सूत्र अ.१ २. आवश्यक कथा ३. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'करण सिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख
से, पृ.८९ .
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