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________________ पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ५५९ उस पापकर्मफल के कारण उस धन पर अधिकाधिक ममता-‍ -मूर्च्छा एवं आसक्ति के कारण उसने और अधिक पापकर्म का ही संचय किया। हृदय में उस पूर्वकृत पापकर्म के फलस्वरूप कठोरता, देव-गुरु-धर्म के प्रति अश्रद्धा, निर्दयता, कृपणता एवं अविश्वास बना रहा। उसकी पुण्य कर्म करने की शक्ति लुप्त हो गई। अधर्म और पाप के कुसंस्कार उस पर हावी हो गए। यह था पुण्य कर्म (शुभ) बन्ध का प्रारम्भ और परिणाम घटित हुआ पापरूप फलभोग ।' चण्डकौशिक : पूर्वकृत पापबन्ध, किन्तु इस जन्म में पुण्यकर्म करके शुभ फलभोग का प्रतीक चण्डकौशिक पूर्वजन्म में एक साधु था; किन्तु अपने शिष्य के द्वारा बार-बार उत्तेजित किये जाने पर वह गुस्से में आग बबूला होकर शिष्य को मारने दौड़ा। अन्धेरे में खंभा न दीखने के कारण खंभे से टकराया और वहीं उसके प्राणपखेरू उड़ गए। क्रोधावेश में मरने के कारण वह मरकर चण्डकौशिक सर्प बना । अनेक प्राणियों को उसने अपनी विषाक्त दृष्टि से मार डाला। भगवान् महावीर के सम्बोधित करने से चण्डकौशिक कुछ संभला, उसे पूर्वजन्म के कृत्य का स्मरण हो आया। फलतः उसके परिणाम शुभ हुए। अपने भावों और आचरण को उज्ज्वल बनाने का संकल्प किया। आमरण अनशन स्वीकार करके अपना मुँह बांबी के अन्दर डाल दिया। अब चण्डकौशिक किसी को बिलकुल नहीं सताता । उसके इस प्रकार शुभ परिणामों से अशुभ कर्मों के परमाणु बदले, शुभ में परिणत हुए, उसके फलस्वरूप वह मरकर शुभफल के रूप में देवयोनि में उत्पन्न हुआ। यह था पापबन्ध का प्रारम्भ, किन्तु परिणाम में घटित हुआ पुण्यफल ! श्रीपाल : पूर्वकृत अशुभ कर्मबन्ध के कारण अशुभ, किन्तु शुभाचरण द्वारा उनका शुभफलों में परिवर्तन अशुभ कर्म को शुभकर्म में परिवर्तित करके शुभफलभोग-प्राप्ति के सम्बन्ध में श्रीपालकुमार का दृष्टान्त प्रस्तुत किया जा सकता है। पूर्वकृत अशुभ कर्मोदय के कारण उसे अपने चाचा वीरदमन के त्रास से अपनी माता कमलप्रभा के साथ वन-वन में भटकने तथा सातसी कोढ़ियों के दल के साथ रहने को बाध्य होना पड़ा। कोढ़ियों के सम्पर्क से श्रीपाल को भी कोढ़ हो गया । कोढ़ीदल श्रीपाल को 'उम्बरराणा' कहकर आदर देता था । १. उपदेशप्रसाद (भाषान्तर) से संक्षिप्त २. आवश्यकचूर्णि से संक्षिप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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