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४५२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
इसी दृष्टि से वर्तमान में प्रचलित भाषा में यह चौभंगी इस प्रकार हैं- ( 9 ) पुण्यानुबन्धी पुण्य, (२) पुण्यानुबन्धी पाप, (३) पापानुबन्धी पुण्य और (४) पापानुबन्धी पाप' ।
पुण्य-पाप के खेल में हार-जीत के रूप में फल का स्पष्टीकरण
इन चारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) पुण्यानुबन्धी पुण्य - कोई पुण्यकर्म, जो वर्तमान में भी उत्तम फल देता है। और भविष्य में भी शुभानुबन्धी होने से पुण्यफलस्वरूप सुख देने वाला होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो- पुण्यकर्मफल की ऐसी स्थिति जिसमें वर्तमान में पुण्य के उदय के फलस्वरूप सभी प्रकार से सुख-सम्पन्नता हो, साथ ही प्रवृत्ति भी उत्तम हो, जिससे पुण्य का उपार्जन भी होता रहे, ताकि वह समुज्ज्वल भविष्य का कारण बने। ऐसी पुण्यदशा वाले जीव वर्तमान में भी सुख-सम्पन्नता से युक्त रहते हैं और भविष्य में भी सुख सम्पन्नता से युक्त होते हैं।
आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार यह वर्तमान और भविष्य की पुण्य सम्पन्न दशा जीव को शुभ से शुभतर की ओर ले जाती है। ऐसी उभय पुण्यसम्पन्नता सम्यग्दर्शन-ज्ञानसहित और निदान रहित शुद्ध धर्म का आचरण करने से प्राप्त होती है। अर्थात्शुद्धरीति-नीति से निरतिचारपूर्वक श्रावक धर्म या साधुधर्म का पालन- आचरण करने से यह पुण्यानुबन्धी पुण्य अर्जित होता है। इसका सर्वोत्तम फल महानतम तीर्थंकरत्व प्राप्ति है। उससे किंचित् निम्नकोटि का फल मोक्षगामी चक्रवर्ती के रूप में प्राप्त होता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि अष्टक प्रकरण में लिखते हैं- जिसके प्रभाव से शाश्वत सुख और अष्टकर्मों से मुक्तिरूप समस्त सम्पदा की प्राप्ति हो, ऐसे पुण्यानुबन्धी पुण्य का मनुष्यों को सभी प्रकार से उपार्जन सेवन करना चाहिए। अर्थात्-जैसे भी हो साधुधर्म एवं श्रावक धर्म का आचरण करना चाहिए।'
इस सम्बन्ध में हम भरत चक्रवर्ती आदि को उदाहरणरूप में प्रस्तुत कर सकते
(२) पापानुबन्धी पुण्य- जो पुण्यकर्म वर्तमान में तो पूर्वपुण्य के फलस्वरूप सुखरूप फल प्राप्त होता है (देता) है, किन्तु पापानुबन्धी होने से भविष्य में दुःखरूप फल देने वाला होता है । जैसे, पूर्वपृष्ठों में अंकित ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि का पुण्य पापानुबन्धी पुण्य हुआ।
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"चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - सुभे णाममेगे सुभे, सुभे णाममेगे असुभे, असुभे णाममेगे सुभे, असु णाममेगे असुभे । " -स्थानांगसूत्र स्थान ४, उ. ४. सू. ६०२ विवेचन
( आगम प्रकाशन समिति ब्यावर ) पृ. ४३०
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