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पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ४५१
यह था अशुभ संयोग और परिस्थिति के प्राप्त होने पर भी यानी पापोदय युक्त संयोग में से पापपूर्ण परिस्थिति में से उत्कृष्ट पुण्य उपार्जन करने की कुशलता।
यही नहीं, शालिभद्र के जीवन में ऋद्धि-समृद्धि एवं सुख सम्पन्नता में कोई कमी नहीं थी, कामभोग के एक से एक बढ़कर साधन प्राप्त थे, फिर भी उन्होंने इस परिस्थिति में स्वयं को फंसाए रखना, तथा धनासक्ति, विषयभोगासक्ति में ग्रस्त रहना उचित नहीं
समझा।
पूर्वोपार्जित पुण्य सम्पदा के मोह का त्याग करके वे त्यागी, तपस्वी, अकिंचन अनगार बने और उत्कृष्ट पुण्य सम्पदा के अधिकारी बने, सर्वोच्च देव-लोकगामी हुए।
यह भी पुण्यानुबन्धी पुण्य का ज्वलन्त उदाहरण है।
संगम के भव में पापपूर्ण परिस्थिति में रहते हुए उसने उत्कृष्ट पुण्यबन्ध करके अपना भविष्य उज्ज्वल बना लिया। इसे शास्त्रीय भाषा में पुण्यानुबन्धी पाप कह सकते हैं। पापोदयवश विपन्न परिस्थिति थी, लेकिन एक कुशल खिलाड़ी की भांति उसने पुण्य उपार्जन करके उसे पुण्यानुबन्धी बना दिया; अर्थात् भविष्य में पुण्यफल की प्राप्ति हो, इस प्रकार की स्थिति बना दी।' कर्म के शुभ-अशुभ फल की दृष्टि से प्ररूपित चतुर्भगी
स्थानांग सूत्र में कर्म के शुभ-अशुभ फल की दृष्टि से एक चीभंगी प्ररूपित की गई है-उसका अर्थ इस प्रकार है-(१) शुभ और शुभ। अर्थात्-कोई पुण्यकर्म शुभ प्रकृतियुक्त होता है, और शुभानुबन्धी भी होता है। (२) शुभ और अशुभ। अर्थात्-कोई पुण्यकर्म शुभ-प्रकृतिदाता होता है, किन्तु होता है-अशुभानुबन्धी। (३) अशुभ और शुभ। अर्थात्-कोई पापकर्म अशुभ प्रकृति वाला होता है, किन्तु होता है-शुभानुबन्धी। (४) अशुभ और अशुभ। अर्थात्-कोई पापकर्म अशुभ प्रकृतिवाला होता है, और अशुभानुबन्धी भी होता है।
___ आशय यह है कि कर्मप्रकृति के मूल भेद ८ हैं। उनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिकर्म हैं, जो अशुभ या पापरूप ही हैं। शेष चार अघाति कर्म प्रकृतियों के दो विभाग हैं। उनमें से सातावेदनीय, उच्चगोत्र, शुभ आयु तथा पंचेन्द्रिय जाति, शुभगति, उत्तम संस्थान, स्थिर, सुभग, यशकीर्ति आदि नामकर्म की ६८ प्रकृतियाँ पुण्यरूप (शुभ) हैं, और शेष पापरूप (अशुभ) कही गई हैं। यहाँ पुण्य को शुभ और पाप को अशुभ कहा गया है।
१. देखें-शालिभद्रचरित (जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज)
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