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________________ ४५0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) पुण्य-पाप के खेल में विजय प्राप्त की और अन्त में पुण्य और पाप दोनों कर्मों से सर्वथा मुक्त, सिद्ध, बुद्ध और परिनिवृत्त हुए।' ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पुण्य-पाप के खेल में हारता ही गया दूसरी ओर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने संभूति मुनि के भव में तप-संयम के फल का निदान (कामभोगों की प्राप्ति का संकल्प) किया था, उस पूर्वकृतपुण्यकर्म के फलस्वरूप उसे चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ, सभी प्रकार की कामभोगों की सामग्री मिली। अर्थात् पूर्वकृत पुण्य कर्मवश उसे अच्छे संयोग, अच्छी परिस्थिति, मनुष्य-जन्मादि दुर्लभ साधन, तथा अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मिले थे; किन्तु वह संभलने के बजाय कामभोगों में अधिकाधिक गृद्ध आसक्त और मोहमूढ़ हो गया, बोधि प्राप्त नहीं कर सका। उसके पांच जन्म के साथी चित्तमुनि के जीव निर्ग्रन्थ साधु ने उसे इस छठे जन्म में दोनों साथियों के बिछुड़ने का कारण, भोगों की क्षणभंगुरता, नीति धर्म के आचरण से सुख-शान्ति के सुन्दर-सुन्दर तथ्य समझाए। अन्त में, (पुण्य) आर्यकर्म करने का अनुरोध किया, परन्तु इतना समझाने के बाबजूद भी ब्रह्मदत्त टस से मस नहीं हुआ। पुण्य-पाप के खेल में अकुशल खिलाड़ी की तरह बाजी हारता ही गया। इस प्रकार उसे अच्छे संयोग आदि मिलने पर भी अकुशल खिलाड़ी होने के कारण वह पुण्य-पाप के खेल में पराजित हो गया और प्राप्त पुण्य-संयोग को भी उसने पापकर्म में परिणत कर डाला और अन्त में वह नरक का ही मेहमान बना।' संगम ने पापमयी स्थिति से संभलकर पुण्यराशिबन्ध किया संगम नामक गोपालपुत्र पूर्वकृत अशुभ कर्म के उदयवश पिता की छत्रछाया से वंचित रहा और विपन्नता, दरिद्रता प्राप्त की। उसे एकमात्र माता का सहारा था। दीनताहीनता एवं दरिद्रता में पले हुए बालक संगम को एकमात्र माता के द्वारा ही संस्कार मिले थे। उसे पापकर्मवश कोई भी शुभ संयोग, सम्पन्नता, सुपरिस्थिति तथा शुभ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भी प्राप्त नहीं थे। किन्तु उसने इस परिस्थिति में भी एक मासिकउपवासव्रती तपस्वी मुनि को उत्कट भावों से अपने खाने के लिये रखी हुई सारी खीर बहरा दी। खीर का दान इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था; किन्तु उसके पीछे दान देने की उत्कट भावना थी, विधि, द्रव्य, दाता और पात्र भी शुद्ध थे। इसके कारण उत्कृष्ट पुण्य बन्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप संगम का जीव मरकर परम धनादि से सम्पन्न राजगृहनिवासी गोभद्रसेठ का पुत्र बना। शालिभद्र के रूप में ऋद्धि-समृद्धि से सम्पन्न मानव बना। १. देखें, उत्तराध्ययन सूत्र का १२वाँ हरिकेशीय अध्ययन। २. देखें-उत्तराध्ययन सूत्र का १३वाँ चित्त-संभूतीय अध्ययन । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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