________________
पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४३७
वाले पुण्यहीन हैं? सर्दी, गर्मी, वर्षा, हवा आदि प्राकृतिक परिवर्तनों को किसी के कर्म का-या सुख-दुःखरूप कर्मफल का कारण मानना कर्मविज्ञान संगत नहीं है। गर्म प्रदेश में रहने वाले कुछ लोग ठंडे प्रदेश में रहने वाले लोगों से अधिक सुखानुभव भी करते हैं, और इसके विपरीत शीत प्रदेश में रहने वाले कुछ लोग दुःखानुभव भी करते हैं। ' पुण्यकर्म का फल धन आदि है, तथा धनादि से व्यक्ति सुखी हो जाता है : इस भ्रान्ति का निराकरण
धन, साधन आदि पौद्गलिक पदार्थ पुण्यकर्म के फलस्वरूप मिलते हैं, धन आदि आदमी सुखी हो जाता है, यह मानना भी ठीक नहीं है । अमरीका आदि पाश्चात्य देशों में लोगों के पास धन और सुखभोग के साधन प्रचुर मात्रा में हैं, फिर भी वे सुखी हैं, सुखानुभव करते हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। बल्कि वहाँ के समाजशास्त्रियों ने जो आंकड़े प्रस्तुत किये हैं, उनसे तो पता लगता है कि अमेरिका आदि देशों के लोग अत्यधिक तनाव, ईर्ष्या, चिन्ता, मानसिक व्याधियों, असमानताओं आदि से ग्रस्त हैं; वे धन और साधनों के होते हुए भी सुखी नहीं हैं।
हम देखते हैं, जो जितना अधिक धनवान् है, वह उतना ही अधिक चिन्ताग्रस्त, दुःसाध्य रोगों का शिकार और अनिद्रा रोग से पीड़ित है । बिछौने पर करबटें बदलतेबदलते उनकी रातें कटती हैं। मनोरंजन के साधनों, स्वादिष्ट व्यंजनों एवं सुख-सुविधा के साधनों का उपभोग वे प्रायः कर नहीं पाते। अत्यधिक व्यस्तता के कारण उनकी नींद, · भूख, तन्दुरुस्ती, स्फूर्ति आदि सब चली जाती है। जो लोग श्रमजीवी हैं, नीतिपूर्वक श्रम करके कमाते हैं, वे प्रायः उनसे अधिक स्वस्थ, निश्चिन्त और सुखी रहते हैं।
चोर, डाकू, तस्कर व्यापारी, भ्रष्टाचारी के पास धन तो प्रचुर मात्रा में होता है, पर वे रात-दिन चिन्तातुर भयग्रस्त एवं अशान्त स्थिति में रहते हैं। फिर हम कैसे मान लें कि उन्हें पुण्यकर्म से धन प्राप्त हुआ है ?
चोरों, डकैतों, वेश्याओं, सिनेमा एक्टरों-एक्ट्रेसों, तस्कर व्यापारियों, काला बाजारियों, भ्रष्टाचारी अधिकारियों आदि के पास प्रचुर धन होता है, तो क्या यह माना जा सकता है कि उन्होंने शुभकर्म किया था, इसलिए धन मिला ?
अतः धन आदि साधनों की प्रचुरता का न तो सुख के साथ सम्बन्ध है, न ही एकान्ततः धर्म या शुभ कर्म के साथ। धन आदि साधनों का पुण्य या धर्म के साथ सम्बन्ध होता अथवा पुण्यकर्म के ही ये फल हैं, ऐसी मान्यता होती तो धर्मधुरन्धर, तीर्थंकर, ऋषि-मुनि, अनगार, धर्माचार्य, संन्यासी या त्यागी चल-अचल सम्पत्ति, राज्य, घर-बार,
9. घट-घट दीप जले से भावांश ग्रहण, पृ. ३९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org