________________
४३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
जमीन, जायदाद आदि को स्वयं क्यों त्यागते या दूसरों को त्याग करने की बात क्यों कहते?'
उत्तराध्ययन सूत्र की गाथाओं से भी यह स्पष्ट है। गृहस्थ श्रावक के धर्म और पुण्य के आचरण में त्याग, तप, मर्यादा का उपदेश
अगर धर्माचरण अथवा पुण्यकर्म में तप, त्याग, स्वार्थत्याग, इच्छाओं पर अंकुश, भोगों की मर्यादा आदि की बात न होती तो भगवान् महावीर गृहस्थ श्रमणोपासकों को परिग्रह परिमाण की, अथवा इच्छा-परिमाण की, स्वदार-सन्तोष व्रत की, अन्याय अनीति से धनार्जन न करने की, व्रत, नियम, तथा उपभोग्य-परिभोग्य वस्तुओं का परिमाण करने की बात क्यों कहते? पन्द्रह प्रकार के कर्मादानों (खरकर्मव्यवसायों) को तीन करण तीन योग से त्यागने की बात क्यों कहते? तथा महारम्भ और महापरिग्रह से नरक गमन की प्ररूपणा क्यों करते? धनादि पदार्थों के होने से सुखी, न होने से दुःखी : यह भ्रान्ति है
अतः धन आदि साधनों को एकान्ततः पुण्यकर्म का फल मानना भ्रान्ति है। धनादि वस्तुओं के होने से सुख का और न होने से दुःख का अनुभव होता है, यह भी भ्रम है। वस्तुओं के न होने पर भी तत्त्वज्ञानी, सम्यग्दृष्टि, सन्तोषी गृहस्थ, तथा परिग्रह-त्यागी निर्ग्रन्थ सुखी हो सकते हैं, सुखानुभव कर सकते हैं, और धन आदि प्रचुर पदार्थों के होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता, सुखानुभव नहीं कर सकता। बल्कि धन या साधन अथवा जितने भी परपदार्थ हैं, उनकी इच्छा, लिप्सा, कामना, प्राप्ति आदि से व्याकुलता, पराधीनता, पराश्रितता, परमुखापेक्षता, अहंकार, क्रोध, मोह, आसक्ति या मूर्छा में प्रायः वृद्धि ही होती है। अतः ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं, यह उक्ति अक्षरशः ठीक है। मनुस्मृति के अनुसार भी-जो भी आत्मवश है, आत्माधीन है, वही सुख है, जो परवशपराधीन है, वह दुःख है। इसके अनुसार पर-पदार्थाश्रित सुख सुखाभास है, सुख नहीं।
१. (क) वही; यत्किंचिद् भावग्रहण, पृ. ४१ २. देखें उत्तराध्ययन अ. १८ गा. ३४, ३८, ४१ :
(क) एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्य-धम्मोवसोहियं । भरहोवि भारहं वासं चेच्चा कामाई पव्वए॥३४॥ (ख) चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्ढिओ। संती संतिकरे लोए, पत्तो गइमणुत्तरं ॥३८॥
(ग) चइत्ता भारहं वासं चइत्ता बल-वाहणं । चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे ॥४१॥ ३. देखें (क) उपासकदशांग सूत्र, आवश्यकसूत्र आदि में श्रावकव्रतों का विवेचन (ख) विशेष जानकारी के लिए देखें-श्रावक-धर्म-दर्शन (प्रवक्ता-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
महाराज) ४. “सर्वमात्मवशं सुखम्, सर्व परवशं दुःखम्।"
-मनुस्मृति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org