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________________ ४३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) नीतिमय धर्म-पुरुषार्थ प्रत्यक्ष, पुण्य के द्वारा प्राप्तव्य : परोक्ष एवं सन्देहास्पद यद्यपि नीतिमय पुरुषार्थ से जो कुछ प्राप्त होता है, वह प्रत्यक्ष है, पुण्य के द्वारा जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह सन्देहास्पद एवं परोक्ष है। आखिर पुण्योपार्जन से कर्मों का आसव ही होता है। निर्जरा या कर्मक्षय नहीं। फिर लोभ, स्वार्थ, यशकीर्ति या सांसारिक सुखभोग की आकांक्षा से प्रेरित होकर किया जाने वाला तथाकथित पुण्यकर्म वास्तविक पुण्यतत्त्व से रहित भी हो जाता है। अथवा इसी पुण्यवाद या भाग्यवाद (पुण्य और भाग्य) के भरोसे बैठकर मनुष्य आलसी, अकर्मण्य एवं तामसिक भी बन जाता है। धर्म तो संतोष, शान्ति, त्याग, वैराग्य, सहिष्णुता, नम्रता, सरलता, निरभिमानता आदि सिखाता है। वे गुण इस तथाकथित पुण्य के सहारे से धन, सत्ता या सांसारिक पदार्थ पाने वाले में शायद ही पाये जाते हैं। धर्म एवं पुण्य से सुख के साधन मिलते हैं, यह भ्रान्ति है कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से धर्म, पुण्य या सत्कर्मों से सुख की अनुभूति होती है, यह तथ्य तो सम्मत है, किन्तु इनसे सुख के साधन प्राप्त होते हैं, यह सिद्धान्तसम्मत तथ्य नहीं है। वर्तमान सत्कर्म से सुख के और दुष्कर्मों से दुःख के साधन मिलते हैं, यह तथ्य भी कर्मविज्ञान संगत नहीं है। आठों ही कर्म फलापेक्षया जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्र विपाकी और कालविपाकी इन पांच भागों में विभाजित हैं। जीवविपाकी कर्म के कार्य हैं-सुख, दुःख, अज्ञान आदि भाव। पुद्गलविपाकी कर्म का फल है-शरीर, वचन और मन आदि का तथारूप मिलना। भवविपाकी कर्म का फल है-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देवभव की विविध अवस्था प्राप्त होना। क्षेत्रविशेष में जो अपना कार्य करते हैं, वे क्षेत्रविपाकी कर्म हैं। कालविशेष में जो अपना कार्य करते हैं, वे कालविपाकी कर्म के फल शुभाशुभ कर्मफलविपाक भी क्षेत्र, काल, पुद्गल और जीव के आश्रित कर्म-फल (विपाक) के कुछ नियम हैं, उन नियमों के अनुसार ही कृतकर्म फल प्रदान करता है। कर्म प्रकृतियों का परिपाक (फल-प्रदान-योग्य) हुए बिना वह फल नहीं देता। कर्मशास्त्र में क्षेत्रविपाकी, कालविपाकी, पुद्गलविपाकी और जीवविपाकी कर्मप्रकृतियों का निरूपण किया गया है। कोई व्यक्ति ठंडे मुल्क में जन्म लेता है, उसे ग्रीष्म ऋतु सुहावनी और सुखकर लगती है, इसके विपरीत तमिलनाडु जैसे गर्म प्रदेश में जन्म लेता या रहता है, उसे ग्रीष्मऋतु कष्टकर और अरुचिकर प्रतीत होती है; तो क्या यह मान लिया जा सकता है कि ठंडे प्रदेश में रहने वाले पुण्यवान् हैं और गर्मप्रदेश में रहने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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