SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४३५ पुण्यवान् है । इसने बहुत पुण्य किया है, तभी तो इतना धन मिला है। " कोई निर्धन है तो झट से उसके विषय में निर्णय दे दिया जाता है- "बेचारे ने पापकर्म किये थे, इसीलिए तो निर्धनता की चक्की में पिस रहा है। बुरे कर्मों का फल भोग रहा है ।" भ्रान्ति यह है कि सुख और दुःख को लोग अच्छे-बुरे (पुण्य-पाप) कर्म के फल के साथ न जोड़कर धन आदि बाह्य पदार्थों के साथ जोड़ देते हैं। इस भ्रान्ति के शिकार लोग यह कहने लगे - " धन चाहिए, या उत्तम सुखभोग के साधन चाहिए तो धर्म करो, पुण्य करो ।”” धर्म-पुण्य से अर्थ और काम की प्राप्ति का नारा वैदिक धर्म के प्राचीन ग्रन्थ महाभारत के रचयिता व्यास ने भी यही नारा लगाया कि " अर्थ और काम की प्राप्ति धर्म से होती है, फिर उस धर्म का सेवन क्यों नहीं करते ?” . यही मान्यता अधिकांश जैन कथाओं में प्रतिपादित की गई है। अधिक धन, अनेक पत्नियाँ, अनेक दास-दासी आदि का होना पुण्यवान् या धार्मिक होने का लक्षण बताया गया। उसी की प्रशंसा की गई है। शान्तसुधारस के रचयिता उपाध्याय विनयविजयजी ने इसी स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा- "धर्म कल्पवृक्ष है। संसार में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो धर्म से नहीं मिलती ? विशाल राज्य, सुन्दर ललना, पुत्र और पौत्र, रमणीय रूप, सरस काव्य रचना की शक्ति, सुस्वरत्व, आरोग्य, गुणों का या गुणीजनों का संसर्ग, सज्जनता और सुबुद्धि; ये सब धर्म से मिलते हैं। धर्म एक ऐसा कल्पवृक्ष है, जिस पर ये सब सुखद फल पकते हैं। इस भ्रान्ति के कारण कामनामय पुण्योपार्जन ही प्रधान बन गया, धर्मपुरुषार्थ गौण यहाँ धर्म से मतलब अध्यात्मधर्म से नहीं, अपितु शुभकर्मप्रधान पुण्य से है। इसका नतीजा यह हुआ कि आदमी संवर- निर्जरारूप आध्यात्मिक धर्मसाधना को छोड़कर अथवा अहिंसा-सत्यादि धर्मों को उपेक्षा करके एकमात्र सस्ते पुण्योपार्जन में लग गया। पुण्य का उपार्जन प्रधान बन गया और धर्म में पुरुषार्थ गौण और उपेक्षित हो गया। 9. 'घट-घट दीप जले से भावांश ग्रहण २. (क) “ऊर्ध्व बाहुर्विरोम्येनैव कश्चित् शृणोति मे । धर्मादर्थश्च कामश्च धर्मः किं न सेव्यते ? " -महाभारत (ख) प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता, नन्दनं नन्दनानाम्। रम्यं रूपं सरसकविता-चातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः । किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिं धर्म- कल्पद्रुमस्य ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only -शान्तसुधारस काव्य. www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy