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________________ ४३४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) विरतिरूप शुभ कर्म करने में अत्यन्त कठिन प्रतीत होते हैं, किन्तु जब वे फल देते हैं, तब परम सुखप्रद हो जाते हैं। इसलिए कल्याण (पुण्य) कर्म का फल आपातभद्र नहीं, अपितु परिणामभद्र है।" फलदानशक्ति की अपेक्षा से पुण्य-पापकर्म फल के कारणों की मीमांसा इसलिए पुण्य कर्म और पापकर्म के फल के कारणों की मीमांसा करते हुए कहा गया है-फलदानशक्ति की अपेक्षा से जैन कर्मविज्ञान में पुण्य और पाप इन दो भेदों में कर्मों को विभक्त किया गया है। दान, भक्ति-अर्चा, मन्दकषाय, साधुवर्ग की सेवा, दया, अनुकम्पा, अलोभवृत्ति, परगुण- प्रशंसा, सत्संगति, अतिथि- सेवा, वैयावृत्य, परोपकार-कर्मठता, सत्कार्यों में सहयोग आदि शुभ कार्यों को करने से और तदनुकूल अन्तःकरण की वृत्ति होने से जिन कर्मों में गुड़, खांड, शक्कर, द्राक्षा आदि के समान मधुर अमृतोपम फलदानशक्ति उपलब्ध होती है, उन्हें सुखदफल दायक पुण्य कर्म कहते हैं। इसके विपरीत मद्यपान, मांस-मछली, अण्डों आदि का आमिष आहार, शिकार, निर्दोष पशुओं और मनुष्यों की हत्या करना, दंगा, आतंक एवं युद्ध का उन्माद पैदा करना, चोरी, डकैती, तस्करी, लूटपाट, ठगी, बेईमानी करना, अन्याय करना, अनैतिक कर्म करना, जुआ खेलना, वेश्यागमन (महिलाओं के द्वारा वेश्याकर्म) करना, परस्त्रीगमन (परपुरुषगमन) करना, विषयभोगों का तीव्रता से सेवन करना, दुष्टों और दुर्जनों की संगति करना, परदोष (परछिद्र) दर्शन, कषाय की तीव्रता, लोभ की अधिकता, अतिथि, बुजुर्गों और बड़ों के प्रति आदरभाव न रखना, कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के प्रति श्रद्धाभक्ति रखना, परनिन्दा - चुगली करना आदि अशुभ कार्यों के करने से और तदनुकूल अन्तःकरण की वृत्ति होने से जिन कर्मों में नीम, कांजीर, विष और हलाहल के समान कटु फलदान शक्ति उपलब्ध होती है, उन्हें दुःखरूप फलदायक पापकर्म कहते हैं। पुण्य-पाप के फल के सम्बन्ध में भ्रान्ति आज धार्मिक जगत् में पुण्य और पाप के फल के सम्बन्ध में बड़ी भ्रान्ति चल रही है, और इसका पोषण और समर्थन मध्ययुग के दिग्गज मुनियों और आचार्यों ने भी किया है, और वर्तमान में इस भ्रान्ति को ज्यों को त्यों चलाया जा रहा है। कर्मविज्ञान का यह मन्तव्य है कि पुण्य करने से सुख मिलता है और पाप करने से दुःख । समाज या राष्ट्र में कोई धनाढ्य है, तो लोग तपाक से कह देते हैं- "यह बड़ा १. २. देखें-भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति) सूत्र, खण्ड २, श. ७, उ.१०, सू. १७-१८ का मूल पाठ, अनुवाद और विवेचन, पृ. २0१ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) महाबन्धो भा. २ प्रस्तावना - कर्ममीमांसा (पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) से, पृ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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