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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४३३ भगवान् ने रूपक की भाषा में समाधान करते हुए कहा-कालोदायी! जैसे कोई पुरुष हांडी (या देगची) में सम्यक् प्रकार से पके हुए मनोज्ञ एवं शुद्ध अष्टादश व्यञ्जनों से परिपूर्ण विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है। वह भोजन उसे आपातभद्र (ऊपर-ऊपर से या प्रारम्भ में अच्छा) लगता है, किन्तु बाद में ज्यों ज्यों परिणमन होता है, त्यों त्यों वह अधिकाधिक विकृत एवं दुर्गन्धयुक्त होता जाता है, इसलिए वह परिणामभद्र नहीं होता। इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह पापस्थानों का सेवन प्रारम्भ में ऊपर-ऊपर से अच्छा (आपातभद्र) लगता है, किन्तु बाद में जब जीव के द्वारा बांधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब अशुभ रूप में परिणत होने से वे दुरूह एवं दुर्गन्ध से युक्त पदार्थ की तरह सब प्रकार से उसे दुःखित (शारीरिक मानसिक दुःखों से युक्त) करते हैं। इस प्रकार पापकर्म प्रारम्भ में आपातभद्र किन्तु परिणाम में अभद्र होते हैं। यों जीवों के द्वारा कृत पापकर्म उन्हें अशुभ-फल विपाक से युक्त करते हैं।' पुण्यकर्म का फलविपाक : पूर्व में आपातभद्र नहीं, परिणाम में भद्र
फिर कालोदायी अनगार ने भगवान् महावीर से पूछा-“भगवन्! जीवों के द्वारा कृत कल्याणकर्म (पुण्यकर्म) क्या उन्हें कल्याणफलविपाक से युक्त कर देते हैं ?
भगवान्–हाँ, करते हैं।
कालोदायी-"भगवन्! जीवों के कल्याणकर्म उन्हें कल्याण फल विपाक से युक्त होने पर कैसे लगते हैं ?"
भगवान्-कालोदायी! जैसे कोई पुरुष हांडी (तपेली या देगची) में सम्यक् प्रकार से पके हुए अष्टादश व्यंजनों से युक्त औषधमिश्रित भोजन का सेवन करता है। उसे वह भोजन आपातभद्र (ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा) नहीं लगता, किन्तु बाद में ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों त्यों (औषध के कारण उस पुरुष का रोग मिट जाने से) उससे सुरूपता, सुवर्णता, यावत् सुखानुभूति होती है। वह भोजन दुःखरूप में परिणत नहीं होता। हे कालोदायी! इसी प्रकार प्राणातिपात विवेक से लेकर मिथ्यादर्शन-शल्य विवेक जीवों को प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता, किन्तु बाद में उसका परिणमन भद्ररूप (सुखरूप) प्रतीत होता है, दुःखरूप नहीं। हे कालोदायी! इसी प्रकार जीवों के कल्याण (पुण्य) कर्म उन्हें कल्याणफल से युक्त कर देते हैं।
निष्कर्ष यह है कि औषध मिश्रित भोजन पहले तो मन के प्रतिकूल लगता है, किन्तु बाद में उसका परिणमन सुखप्रद हो जाता है। ठीक उसी प्रकार हिंसादि से
१. देखें-भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र शतक ७ उ. १० सू. १५/१६ मूलपाठ, अनुवाद और
विवेचन, (खण्ड २) (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. २००-२0१।
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