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________________ ४३२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) फल की दृष्टि से पुण्यकर्म और पापकर्म की पहचान ___ कई लोग पापकर्म करते हुए भी सुखरूप फल चाहते हैं, किन्तु इसके विपरीत वे पापों के दुष्परिणाम के रूप में दुःख पाते रहते हैं, फिर भी पापकर्म से विरत नहीं होते। अधिकांश लोग विषयोपभोग से होने वाले क्षणिक सुखानुभव को ही वास्तविक सुख और पूर्वपुण्यफल मान लेते हैं। किन्तु वह सुख काल्पनिक और मिथ्या है, मृगमरीचिकावत् है, परिणाम में दुःखजनक है। किम्पागफल के सदृश वह सुख स्थूलदृष्टि से आपातरमणीय, मधुर और अनुपम प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में दुःखद है, ग्लानि और सन्ताप पैदा करने वाला है। ____ गीता में उस सुख को राजसिक कहा गया है, जो पहले अमृतोपम लगता है, किन्तु परिणाम में विष सम होता है। तथैव जो सुख आदि और अन्त में आत्मा को मूर्छित, मोहमूढ़ तथा प्रमादमग्न करनेवाला होता है, उसे तामसिक कहा गया है। परन्तु जो सुख प्रारम्भ में धर्म, नीति आदि के अंगों की साधना करते समय विषवत् अप्रिय या कटु लगता है, किन्तु परिणाम में अमृततुल्य प्रिय एवं हितकर होता है, वह सात्त्विक सुख है, जो यथार्थ पुण्यकर्म से प्राप्त होता है।' पापकर्म का फलविपाक : पहले आपातभद्र, किन्तु परिणाम में भद्र नहीं पुण्यकर्म और पापकर्म का फल कैसा होता है ? इसे यथार्थरूप से समझने के लिए भगवतीसूत्र में वर्णित भगवान् महावीर और कालोदायी परिव्राजक का संवाद जानना उचित होगा। ___ एक बार राजगृही में गुणशीलक चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर से कालोदायी अनगार ने पूछा-“भगवन्! जीवों के द्वारा किये हुए पापकर्म क्या उन्हें पापफल विपाक से युक्त करते हैं ?" भगवान्–हाँ, करते हैं। कालोदायी-'भंते! जीवों के पापकर्म उन्हें पापफल से युक्त कैसे करते हैं ? १. (क) केवल अपने ही लिए न जीएँ (श्रीराम शर्मा आचार्य) से भावांश ग्रहण, पृ. १२३ (ख) यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। तत्सुख सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धि-प्रसादजम्॥ विषयेन्द्रिय-संयोगाद यत्तदग्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजस स्मृतम्॥ यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः। निद्रालस्य-प्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥ -भगवद्गीता १८/३६ से ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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