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________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४२३ आचारांग सूत्र में तो स्पष्ट कहा है कि “जो षट्जीवनिकायों की हिंसा रूप पापकर्म करता है, वह हिंसा उसके अहित के लिए तथा अबोधि के लिए होती है। वह निश्चय ही उसके लिए कर्मों की गांठ (बन्धनरूप ग्रन्थी) है, वह मोह (कर्मबन्धक) है, वही मृत्यु है, वही नरक है ।" पापकर्मों का दुष्फल : अनेक रूपों में दुःखों का चक्र आचारांगसूत्र में ही आगे कहा गया है- "परिग्रह और काम की आसक्ति से होने वाले पापकर्मों को भली-भांति समझकर मुमुक्षु साधक पापकर्मों को न तो स्वयं करे, न ही दूसरों से करवाए, पापकर्म का अनुमोदन न करे।" पापकर्म का मुख्य दुष्फल बताते हुए इसी उद्देशक के अन्त में कहा गया है“पापकर्मों के दुष्परिणामों से अनभिज्ञ अज्ञानी मानव बार-बार विषयों में आसक्त होता है। कामवासनाओं और विषयेच्छाओं को मनभावनी मानकर वह उनकी बार-बार पूर्ति करता है। इस कारण वह अहर्निश अनेक शारीरिक, मानसिक दुःखों से दुःखी बना रहता है। वह दुःखों के ही चक्र में परिभ्रमण करता रहता है।" कुबुद्धि का सहारा लेकर जो मनुष्य विविध पापकर्मों से धन कमाते हैं, वे उस पापोपार्जित धन को यहीं छोड़कर रागद्वेष के पाश (जाल) में पड़ते हैं और उस पापकर्मवश अनेक जीवों के साथ वैर बांधकर वे मरकर नरक में जाते हैं। जीव हिंसा का फल भी उतना ही दुःखद और भयंकर उस युग में कई पापपरायण तथाकथित श्रमण या ब्राह्मण भी जीवहिंसा में कोई पाप नहीं मानते थे और सरेआम कहते थे - “प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की विविध रूप से हिंसा करने में कोई भी पाप नहीं है।" उन्हें चुनौती देते हुए भगवान् महावीर ने कहा-‘“हे दार्शनिको! प्रखरवादियो ! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय, जैसे आपको दुःख १. देखें- "तं से अहियाए तं से अबोहीए.....एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए।" - आचारांग १ श्रु. अ. १, उ. ७, सू. ५८-५९ का विवेचन, पृ. ३५ ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) (क) “ से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए, तम्हा पावं कम्मं णेव कुज्जा, ण कारवे ।" - आचारांग १/२/६/ सू. ९५ (ख) “बाले पुण णिहे कामसमण्णुण्णे असमित दुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुपरियट्टति । ” -वही १/२/६/सू. १०५ २. (ग) जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंति अमई गहाय । पहाय ते पास पट्टए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उर्वेति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only -उत्तराध्ययन ४/२ www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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