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________________ ४२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) अप्रिय है, वैसे ही सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है, असाताकारक है, अशान्तिजनक है, महाभयंकर है।" इसका परिणाम भी उतना ही दुःख और सन्ताप पैदा करने वाला है।' पुण्यकर्म और पापकर्म के सुफल और दुष्फल के सर्वज्ञोक्त शास्त्रीय उदाहरण इस सन्दर्भ में यह भी बता देना आवश्यक है कि पापकर्मों का फल देर-सबेर अवश्य ही भोगना पड़ता है। सुखविपाक सूत्र में उस युग में हुए कुछ विशिष्ट (दस) श्रमणोपासकों-पुण्यशालियों का जीवनवृत्त दिया गया है, जिन्होंने अपने जीवनकाल में श्रावकव्रत ग्रहण करके उनका निरतिचार पालन किया। जिस (अर्जित) पुण्यराशि के फलस्वरूप उन्हें उच्च देवलोक प्राप्त हुआ। उनमें से अधिकांश श्रावक वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर संयम ग्रहण करके सिद्ध-बुद्ध एवं सर्वकर्म-मुक्त होंगे। ___ दुःखविपाक सूत्र में ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने अपने पूर्वजन्म में पापकर्म उपार्जित किये थे, फलतः इस जन्म में भी उन्हें बोधि (आत्मबोध) प्राप्त न हो सकी। वे पूर्व-कुसंस्कारवश पापकर्म में ही रत रहे। अतः पापकर्म के फलभोग के रूप में उन्हें जन्म-जन्मान्तर में विविध दुःखों का सामना करना पड़ा। उनकी बार-बार मृत्यु भी दुःखान्त ही हुई। मृत्यु के पश्चात् भी उन्हें प्रायः कुगति, कुयोनि और कुमानुषयोनि ही प्राप्त हुई, जहाँ उन्हें सम्यक् बोध नहीं मिल सका। इससे स्पष्ट है कि अपने द्वारा एक जन्म में अर्जित पापकर्मों का फल अगले एक जन्म में ही नहीं, अनेक जन्मों में, और कई गुना अधिक भोगना पड़ा। सारा दुःखविपाक सूत्र इस तथ्य का साक्षी है। अष्टादश विध पाप कर्मों के बन्ध का ८२ प्रकार से फलभोग ___इस दृष्टि से जैनकर्म विज्ञान में बताया गया है कि-अठारह प्रकार से हुए पापकर्मों के बन्ध का फल ८२ प्रकार से भोगना पड़ता है। नवतत्त्व प्रकरण में उनका क्रम इस प्रकार है-(१-५) पंचविध ज्ञानावरणीय, (६-१0) पंचविध अन्तराय, (११-१५) पांच प्रकार की निद्रा (१६-१९) चार प्रकार का दर्शनावरणीय, (२०) असातावेदनीय, (२१) नीचगोत्र, (२२) मिथ्यात्वमोहनीय, (२३) स्थावर-नाम, (२४) सूक्ष्मनाम, (२५) पर्याप्त नाम, (२६) साधारण नाम, (२७) अस्थिर नाम, (२८) अशुभ नाम, (२९) दुर्भगनाम, (३०) दुस्वर नाम, (३१) अनादेय नाम, (३२) अयशोकीर्तिनाम, (३३) १. "पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो-'हं भो पावादुया! किं भे सायं दुक्खं उदाहु असायं? समिया पडिवन्ने यावि एवं बूया-सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अप्परिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं।" -आचारांग १/४/२/सू. १३९ २. देखें-विपाकसूत्र का प्रथम और द्वितीय स्कन्ध। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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