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________________ ४२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) पापकर्मरत मानवों की बुद्धि तीन मिथ्या मान्यताओं से भ्रष्ट और दुष्परिणाम इसी तथ्य का समर्थन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- पापकर्म में रत मनुष्यों की बुद्धि तीन प्रकार की मिथ्या मान्यताओं से भ्रष्ट हो जाती है- ( १ ) पंचभूतवादी, अनात्मवादी या तज्जीव- तच्छरीरवादी के मतानुसार प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर परलोक का अपलाप करने से, (२) भूत और भविष्य की उपेक्षा करके केवल वर्तमान को ही सब कुछ मानने वाले प्रेयवादियों का मतानुसरण करने से और (३) गतानुगतिक बनकर विवेकमूढ़ बहिरात्माओं का मतानुसरण करने से। इन तीनों मतों में से प्रथम का अनुसरण करके वह पापमति अज्ञानी कहता है“मैंने परलोक नहीं देखा, इस लोक में कामभोगों में रमण का सुख तो प्रत्यक्ष आँखों से देख रहा हूँ।” उसके फलस्वरूप वह नरक के जाल में फँस जाता है। सुख द्वितीय मतानुसरण करके वह कहता है-"ये प्रत्यक्ष दृश्यमान कामभोगों के तो हस्तगत हैं, भविष्य का सुख तो अभी बहुत दूर है, अनिश्चित भी है। और कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं ?" तीसरी मान्यता के अनुसार वह गतानुगतिक बनकर कहता है- "इन बहुत-से लोगों की जो गति होगी, वही मेरी हो जाएगी। मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा।" इस प्रकार धृष्टता को अपनाकर निःशंक होकर कामभोगों का सेवन करता है, जिसका फल यहाँ और वहाँ सर्वत्र क्लेश ही क्लेश है। "वह पापकर्मपरायण मानव त्रस और स्थावर जीवों की सप्रयोजन या निष्प्रयोजन हिंसा करता रहता है । फिर वह अज्ञानी मानव हिंसक, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर, शठ (धूर्त) एवं उद्दण्ड बनकर मांस और मदिरा का धड़ल्ले से सेवन करता है और मानता है कि यही मेरे लिए श्रेयस्कर है। वह तन, मन, वचन से मत्त (गर्विष्ठ) होकर कंचन और कामिनियों में आसक्त हो जाता है। वह राग और द्वेष से, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या क्रिया से दोनों ओर से अष्टविध पापकर्म का संचय करता है। और अन्तिम समय में घोर पश्चात्ताप और खेद करता है, परन्तु कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि वह पापकर्म के फलस्वरूप प्राणघातक भयंकर रोगों से आक्रान्त हो जाता है। उस समय अपने क्रूर पापकर्मों के फलस्वरूप नरकगति में प्राप्त होने वाली प्रगाढ़ वेदनाओं का स्मरण करके वह कांप उठता है। इसलिए पापकर्म का फल उसे यहाँ भी संत्रस्त करता है, और आगे भी विविध कुगतियों और कुयोनियों में भी नाना यातनाओं से वह संत्रस्त होता है।' १. देखें, उत्तराध्ययनसूत्र के पंचम अध्ययन की गा ५ से १२ तक का विवेचन, पृ. ८९ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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