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________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४२१ पूर्वकृत पापकर्म ही होते हैं। फिर वे पापकर्म इस जन्म में किये हों, अथवा पूर्वजन्मों में। मृत्यु के पश्चात् नरकगति, प्रेतयोनि (आसुरी योनि) तथा अन्य निकृष्ट योनियों में जन्म जैसी दुर्गतियों का कारण भी पूर्वसंचित पापकर्म हैं, जो अपने समय पर फल भुगवाकर ही रहते हैं। _ “मार्कण्डेय पुराण" में तो यहाँ तक कहा गया है कि “पैर में कांटा लगने पर तो वह एक ही जगह पीड़ा देता है, किन्तु पापकर्म तो मोटे खीले के समान अनेकों जगह अत्यन्त पीड़ा देता है। जिनमें मस्तकपीड़ा, आदि दुःसह व्याधियाँ तथा कुपथ्य भोजन, ठंड, गर्मी, थकान, सन्ताप आदि पैदा करने वाले रोग मुख्य हैं।" । ___गरुडपुराण भी इस तथ्य का साक्षी है-“कलियुग में मनुष्यों के रहन-सहन अशुद्ध हो जाने से वे प्रेत योनि को प्राप्त होते हैं। सतयुग एवं द्वापर आदि युग में तो कोई प्रेत नहीं होता था, न ही किसी को प्रेत-सम्बन्धी पीड़ा होती थी।" । ___पापकर्मी जैसे-जैसे पाप करते हैं, उन्हीं रूपों में उन्हें उनका प्रतिफल मिलता है। मार्कण्डेय पुराण में कहा है-"जो दूसरों को भूखे मारकर दुर्भिक्ष पैदा करते हैं, वे स्वयं दुर्भिक्ष के शिकार होते हैं, जो दूसरों को क्लेश (कष्ट) देते हैं, वे क्लेश पाते हैं, दूसरों को डराने वाले स्वयं भयभीत रहते हैं और दूसरों को मारने वाले स्वयं बेमौत मरते हैं, दूसरों का शोषण करके उन्हें दरिद्र बना देने वाले स्वयं दरिद्रता से पीड़ित होते हैं। पापकर्म के फलस्वरूप वे नानाविध कुगतियों में भ्रमण करते रहते हैं।" __पापकर्मी मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। विवेकमूढ़ बनकर उसका मन बेकाबू हो जाता है। उसमें तीव्र पाप वासनाएँ उठती हैं, जिन्हें पूरी करने के लिए वह अखाद्य खाता है, अपेय वस्तु का पान करता है, अगम्य गमन (अनुचित अमर्याद काम-सेवन) करता है। दुष्टों की सोहबत में रहता है, जूआ आदि दुर्व्यसनों का शिकार हो जाता है। उसके मस्तिष्क में बुरे विचारों के तूफान उमड़-घुमड़ कर आते रहते हैं। वह रौद्रध्यान-परायण होकर हिंसा, झूठ, फरेब, दूसरों का धन हड़पने और दूसरों की चलअचल सम्पत्ति को अपने कब्जे में करने का प्लान बनाता रहता है। वह अपनी दैनिक चर्या में अस्तव्यस्त और अनियमित रहता है। आलस्य और प्रमाद से घिरा रहता है। १. (क) पादन्यासकृतं दुःखं कण्टकोत्थं प्रयच्छति। तत्प्रभूततर-स्थूल-शंकु-कीलकसम्भवम्॥ . दुःखं यच्छति तद्वच्च शिरोरोगादि दुःसहम्। . अपथ्याशन-शीतोष्ण-श्रम-तापादिकारकम्॥ -मार्कण्डेय पुराण (ख) कलौ प्रेतत्वमाप्नोति तााशुद्ध क्रिया-परः। रूतादौ द्वापरं यावत्र, प्रेतो नैव पीडनम्॥ -गरुड़ पुराण (ग) दुर्भिक्षादेव दुर्भिक्षं, क्लेशात्क्लेशं, भयाद्भयम्। मृतेभ्यः प्रमृता यान्ति दरिद्राः पापकर्मिणः॥ -मार्कण्डेय पुराण १८ २. केवल अपने ही लिए न जीएँ (श्रीराम शर्मा आचार्य) से भावांश ग्रहण, पृ. ११७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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