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________________ आध्यात्मिक क्षेत्र में-कर्म-विज्ञान की उपयोगिता २३ का कर्तव्य हो जाता है कि जैनकर्मविज्ञान का गहराई से अध्ययन करे और उसकी उपयोगिता को समझे।' सभी दृष्टियों से कर्मविज्ञान पर विचारणा आवश्यक साथ ही वह इस विज्ञान की केवल व्यवहारिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक, जीववैज्ञानिक, शरीरवैज्ञानिक, भौतिकवैज्ञानिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टियों से उपयोगिता के बारे में भी सर्वांगीण रूप से विचार कर्म सर्वथा त्याज्य नहीं, किन्तु संसारयात्रा के अन्त तक उपादेय भी हैं, क्यों और कैसे? ___ इतना कह देने मात्र गे काम नहीं चल सकता कि कर्म तो सर्वथा त्याज्य हैं; कर्म-परमाणु तो परभाव हैं, इसलिए स्वभाव को विकृत करने वाले, आत्मशक्ति के प्रतिबन्धक, अवरोधक एवं आवरक हैं; इसलिए इन्हें सर्वथा हेय ही समझने चाहिए। और इतना कहने मात्र से कि कर्मो! तुम हमारा पिण्ड छोड़ दो, क्यों हमारी आत्मा के साथ लगे हो?" पुराने कर्म छूट नहीं जायेंगे, तथा नये कर्म आने से भी रुक नहीं जायेंगे। कर्म आपकी संसारयात्रा और शरीरयात्रा में साथ-साथ लगे रहेंगे। आपके इस जीवन के और अगले जन्मों के प्रत्येक क्रियाकलाप पर कर्म अंकित होते रहते हैं, होते रहेंगे और समय पर अपना फल देकर छूटते जाएँगे, साथ ही नये-नये कर्मों का आवागमन भी जारी रहेगा। “आपकी शरीरयात्रा भी कर्म किये बिना सफल एवं सिद्ध नहीं हो सकेगी।" "समग्र लोक स्व-स्वकर्मसूत्र से ग्रथित है।"२ वह प्राणियों के जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण में रमा हुआ है। यह व्यक्ति का कर्तव्य है कि चौबीसों घंटे अपने साथ रहने वाले कर्म की गतिविधि को पहचाने कि उसकी कहाँ उपयोगिता है, कहाँ अनुपयोगिता है ? वह कहाँ तक उपादेय है, कहाँ उपादेय नहीं है, कौन से कर्म शुभ हैं और कौन से कर्म अशुभ है, सर्वथा त्याज्य हैं ? शुभ कर्म भी कहाँ तक उपादेय हैं और वे कब और किस कारण से अंशुभ हो जाते हैं ? कर्मों की सेना बहुसंख्यक है तो जीव (आत्मा) अकेला होते १. देखें (क) कर्मग्रन्थ भाग १ से ५ तक (ख) महाबंधो पुस्तक १ से ७ तक (ग) कर्म प्रकृति (घ) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)आदि। २. (क) शरीरयात्राऽपि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः। (ख) स्वकर्मसूत्र ग्रथितो हि लोकः। -गीता -महाभारत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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