SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता ( ४ ) हुए भी उसके पास अनन्तचतुष्टय सम्पन्न चार वरिष्ठ सैन्य दल हैं, मगर हैं वे सुस्त, कुण्ठित, सुषुप्त एवं उत्साहहीन । अतः ऐसी स्थिति में जीव को कर्मों के सैन्यदल के साथ कहाँ जूझना है, कैसे जूझना और विजय पाना है, एवं कहाँ उसके साथ समझौता करना है, कहाँ उसके साथ सन्धि एवं सुलह करनी है ? इसका पूर्ण विवेक कर्मविज्ञान बताता है। जैन कर्मविज्ञान इतना समृद्ध एवं सुव्यवस्थित है कि इसमें जीवन के हर एक क्षेत्र की प्रत्येक समस्या और प्रत्येक प्रश्न का हल ढूंढा जा सकता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक पहलू का सर्वेक्षण और अनुसन्धान करने का उपाय भी जैन कर्मविज्ञान मार्गणाद्वारों तथा गुणस्थानों के माध्यम से बताता है। इसे भलीभांति हृदयंगम करके ही मानव अपने लक्ष्य की दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ सकता है और शुद्ध कर्म की पगडंडी पर चढ़कर वीतरागता से सम्पन्न होकर चार आत्मगुणघातक कर्मों को सर्वथा क्षय कर सकता है, तदनन्तर उस जन्म के आयुष्य कर्म के समाप्त होने के साथ ही आठों ही कर्मों को समूल विनष्ट कर सकता है।' इन सब तथ्यों और तत्त्वों पर से यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि कर्मविज्ञान की मानव-जीवन में कितनी उपादेयता और उपयोगिता है ? कर्मविज्ञान को अपनाए बिना कर्मों से मुक्ति या कर्मक्षय की युक्ति की कला कैसे प्राप्त हो सकती है ? कर्मविज्ञान को अधिगत करने पर ही मानव पुरातनबद्ध कर्मों को उसके द्वारा निर्दिष्ट उपायों से क्षीण कर सकता है और नये आते हुए कर्मों को भी रोक सकता है। सर्वज्ञोक्त होने से कर्मविज्ञान सर्वाधिक उपयोगी एवं प्रेरक कर्मविज्ञान आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वाधिक उपयोगी इसलिए है कि कर्मविज्ञान के उपदेष्टा वीतराग सर्वज्ञ हैं, जिन्होंने अपने समस्त प्रवचन जगत् के समस्त जीवों की रक्षा=आत्मरक्षारूप दया से प्रेरित होकर प्रतिपादित किये हैं। वे भला जगत् के जीवों का वध हो, उनकी आत्मा पतित और चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करके दुःखी हो, ऐसा उपदेश कैसे कर सकते हैं? हाँ, उन्होंने कर्मविज्ञान के द्वारा यह अवश्य बता दिया है कि आत्मा कैसे कर्मों के आनवद्वार में फंसता है? कैसे कर्मों के बन्धन १. देखें (क) कर्म रहस्य, कर्मसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) (ख) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक (ग) कर्मबाद ( युवाचार्य महाप्रज्ञ ) (घ) जैनदृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचंद गि. कापडिया ) २. सव्वजंग जीव रक्खण-दयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्रश्नव्याकरण सूत्र www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy