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________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ४०७ वृद्धावस्था। इन तीनों अवस्थाओं में भी कालगत कर्मविपाक के नियम पृथक् पृथक् होते हैं। यद्यपि इन तीनों अवस्थाओं में से प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के पूर्वजन्मगत और इस जन्म के संस्कार, वातावरण आदि का भी प्रभाव होता है; फिर भी सामान्यतया बचपन में प्रायः कोमल मन, भोला भद्र स्वभाव और अल्प बौद्धिक विकास होता है। इसके कारण कर्मविपाक भी मन्द और प्रायः शुभ होता है। युवावस्था में तन, मन, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, आदि सब सशक्त, कठिन कार्यक्षम, साहसतत्पर, उत्साहयुक्त एवं बलिष्ठ हो जाते हैं। युवक वर्ग के लिए कोई भी कठिन कार्य करना प्रायः आसान होता है। परन्तु युवावस्था में वासना कामना उद्दाम हो जाती हैं, किसी-किसी में लोभ, मोह तथा सन्मान, धन, साधनों आदि के प्रति आसक्ति या मूर्छा अत्यधिक हो जाती है। व्यक्ति विषय-वासनाओं के भंवरजाल में फँस जाता है और अपने लक्ष्य को भूल जाता है। इसलिए कर्मों का सर्वाधिक विपाक इसी अवस्था में होता है। __इसके पश्चात् आता है बुढ़ापा। बुढ़ापे में तो इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं। आँख, कान आदि से देखना-सुनना कम हो जाता है, किसी किसी के तो दोनों ही जबाव दे देते हैं। तन-मन की शक्ति क्षीण हो जाती है, किसी कार्य को करने का, धर्माचरण, तप, जप, सेवा आदि करने का उत्साह नहीं रहता। यदि स्निग्ध काल और स्निग्धक्षेत्र हो तो आयु बहुत लम्बी होगी, बुढ़ापा जल्दी नहीं आएगा, जबकि रूक्षकाल और रूक्षक्षेत्र में आयु थोड़ी हो जाएगी, बुढ़ापा भी जल्दी आ जाएगा। बुढ़ापा यों तो ४0 वर्ष के बाद प्रारम्भ हो जाता है। ज्यों-ज्यों उम्र ढलने लगती है, त्यों-त्यों शरीर, मन और इन्द्रियों की शक्तियाँ घटती जाती हैं। पचास वर्ष की उम्र में केश पकने लग जाते हैं। साठ में तो वह थक जाता है। सत्तर वर्ष के बाद तो आदमी नितान्त बूढ़ा हो जाता है। दांत भी गिरने लगते हैं, केश सारे रूई की पूनी की तरह सफेद हो जाते हैं, घुटनों और टाँगों में दर्द रहने लगता है। यह बुढ़ापा कालकृत है, स्वाभाविक है। इसीलिए 'दशवैकालिक सूत्र' में कहा गया है-“जब तक बुढ़ापा पीड़ित नहीं करे, जब तक शरीर में कोई व्याधि न बढ़े, और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण न हों तब तक धर्माचरण कर लो।" शीघ्र बुढ़ापा आने का एक कारण है मनोभाव। बुढ़ापे में मनोभावों में उदासी, चिन्ता, निराशा, घबराहट, तथा कषाय की प्रबलता है, तो वह शायद चालीस या पचास वर्ष में ही आ जाए। बुढ़ापा आने पर असातावेदनीय तथा आयुष्य कर्म के विपाक की अधिक सम्भावना होती है। १. जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे॥ २. जैन दर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण, पृ. ११८ -दशवैकालिक ८/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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