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४०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
निद्रा भी कालगत नियम से सम्बद्ध, कर्मविपाक की कारण
निद्रा भी काल के नियम से सम्बन्धित है। बहुत-से लोगों को ध्यान और स्वाध्याय आदि के समय में नींद आने लगती है और नींद का समय होता है, रात्रि को बिछीने पर लेटते हैं तो नींद नहीं आती। दिवस निद्रा का काल नहीं है पर उस समय कई लोगों को नींद आती है। दर्शनावरणीय कर्म के परमाणु प्रभावित करते हैं तब व्यक्ति को निद्रा आती है। प्रात:काल नौ या दस बजे का समय दर्शनावरणीय कर्म के विपाक का समय नहीं, क्योंकि वह प्रायः निद्रा का समय नहीं है। निद्रा का समय प्रायः रात्रि को नौ-दस बजे का है, अतः वह दर्शनावरण कर्म के विपाक का समय है।' फल दिये बिना भी कर्म आत्मा से अलग हो सकते हैं : कैसे और किस नियम से ?
पूर्वोक्त द्रव्यादि-निमित्तक कर्मफल नियमों में से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्म अपना फल दिये बिना ही आत्मा से अलग हो सकते हैं या नहीं?
इसका समाधान करते हुए भगवती-आराधना में कहा गया है-यदि उदीयमान कर्मों को अनुकूल सामग्री नहीं मिलती है, तो बिना फल दिये ही उदय होकर कर्म आत्मप्रदेशों से अलग हो जाते हैं। जिस प्रकार दण्डचक्रादि निमित्त कारणों के अभाव में केवल मिट्टी से घड़ा नहीं बनता, उसी प्रकार सहकारी कारणों (द्रव्यक्षेत्रादि निमित्तों) के अभाव में कर्म भी फल नहीं दे सकते। स्थितिकाल पूरा होने से पहले भी कर्म फलप्रदान कर सकते हैं : कैसे और किस नियम से?
___इसी से सम्बन्धित एक प्रश्न और उभरता है कि क्या कर्म अपना स्थितिकाल पूरा होने पर ही फल देते हैं या स्थितिकाल पूरा होने से पहले भी फल दे सकते हैं ? ___'ज्ञानार्णव' आदि में इस प्रश्न का समाधान यों किया गया है-सामान्य नियम यह है कि कर्म का बन्ध होते ही उसमें उसी समय फल (विपाक) प्रदान का प्रारम्भ नहीं हो जाता, वह निश्चित अवधि (स्थिति) के पश्चात ही फल देता है। अर्थात-स्थितिबन्ध (कालावधि) समाप्त होने के पश्चात् ही फल प्रदान करता है। किन्तु जिस प्रकार असमय में आम आदि फलों को पाल आदि के द्वारा पकाकर रस देने योग्य कर दिया जाता है। उसी प्रकार स्थिति पूरी होने से पहले ही तपश्चरणादि के द्वारा कर्मों को पका देने पर वे
१. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण पृ. ११९ २. (क) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. २१६
(ख) भगवती आराधना (विजयोदया वृत्ति) गा. ११७० पृ. ११५९
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