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________________ ४०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) लाभान्वित होते हैं। अवसर को चूकने वाला पछताता है और अवसर से लाभ उठाने वाला प्रसन्न रहता है। मुर्शिदाबाद के जगत्सेठ के विषय में सुना है कि उनके पास एक दिन आजीविका का कोई भी साधन नहीं था। जीवन में निर्धनता और विपन्नता छाई हुई थी। वे एक जैन मुनि के पास पहुँचे। जैन मुनि ने स्वरोदय के आधार पर कहा-“श्रावकजी! मंगलपाठ सुन लो, यह समय बहुत श्रेष्ठ है।" __ जगत्सेट मांगलिक सुनकर मुनि को वन्दन करके सीधा व्यापार के लिए चल पड़ा। जो भी व्यापार किया, उसमें वारे-न्यारे हो गये। उसके यहाँ लक्ष्मी क्रीड़ा करने लगी। श्रेष्ठ व्यापारियों में उसकी गणना होने लगी। यह था-कालकृत नियम के अनुसार चलने से लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम के । अवसर को न चूकने का सुपरिणाम।' । नया सम्बन्ध बांधने में कालगत नियमों का उपयोग किसी के साथ नया सम्बन्ध स्थापित करने में भी कालकृत नियम बहुत उपयोगी होता है। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध जोड़ने में, दीक्षा देने में भी मुहूर्त का, चौघड़िये का, तथा समय का विचार किया जाता है। देखा गया है कि अशुभ समय में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जुड़ा है तो वह अधिक निभने वाला नहीं हुआ, वह टूट ही गया। इसके विपरीत शुभ समय में गुरु शिष्य का सम्बन्ध जुड़ गया तो वह चिरकाल स्थायी रहा, परस्पर धर्म-स्नेह-वर्द्धक रहा, अमुक कर्मों का क्षयोपशम हुआ, अथवा सातावेदनीय आदि शुभ कर्मों का विपाक हुआ। सामाजिक सम्बन्धों को जोड़ने के समय भी काल सम्बद्ध नियमों का विचार किया जाता है। इसके फलस्वरूप अमुक समय में अमुक व्यक्ति के साथ सम्बन्ध जुड़ा और वह चिरस्थायी एवं अच्छा रहा। इसके विपरीत, समय न देखकर जैसे-तैसे सम्बन्ध जोड़ लिया, वह दो-चार वर्ष निभा, फिर टूट गया। दोनों पक्षों के दिल टूट गए, मनोमालिन्य बढ़ गया। अशुभ कर्मों का विपाक दृष्टिगोचर होने लगा। किस समय कौन-सा कार्य करना चाहिए, जिससे या तो शुभ कर्मों का विपाक हो, या फिर कर्मक्षयोपशम का लाभ हो, इसके सन्दर्भ में अनेक नियम बने हैं।२ । जीवन के तीन अवस्थागत नियम भी कर्मविपाक को प्रभावित करते हैं प्रत्येक जीव के जीवन की तीन मुख्य अवस्थाएँ हैं-बाल्यावस्था, युवावस्था और १. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ से भावांश ग्रहण, पृ. २३२ २. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण, पृ. १२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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