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४०४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) ही उस सनिवेश (मोहल्ले या प्रदेश) की भी निन्दा करने लगेगा।" यहाँ से कर्मविपाकक सिलसिला शुरू हो जाएगा।' आत्मसम्प्रेक्षण का समय : कालकृत नियम से बंधा हुआ . दशवैकालिक सूत्र में आत्म-सम्प्रेक्षण की विधि और काल का उल्लेख किया गया है-“जो व्यक्ति पूर्व रात्रि और अपर रात्रि के सन्धिकाल में अपनी आत्मा का अपने आप सम्प्रेक्षण करता है कि मैंने क्या किया है ? कौन-सा सत्कार्य करना बाकी है? तथा कौन-सा ऐसा शक्य कार्य है, जिसे मैं नहीं कर रहा हूँ ? मुझे दूसरे किस दृष्टि से देखते हैं? मेरी आत्मा क्या सोचती है, अपने बारे में? कौन-सी ऐसी स्खलना (दोष) है, जिसे मैं वर्जित नहीं कर रहा हूँ ? इस प्रकार सम्यक् अनुप्रेक्षण करने वाला साधक भविष्य में होने वाले कर्मबन्ध से बच जाता है।" इस प्रकार आत्मावलोकन का काल और उससे होने वाले लाभ का निरूपण करके शास्त्रकार ने भावी कर्मविपाक से बचने की युक्ति बता दी
स्वरोदयशास्त्र भी कालकृत नियम की सम्पुष्टि करता है
कर्मविपाक के नियम को समझने के लिए स्वरोदयशास्त्र भी बहुत उपयोगी है। यदि चन्द्र-स्वर और सूर्य-स्वर के नियम के आधार पर अमुक-अमुक कार्य करनेन करने का संकेत समझा जाए तो कर्म-विपाकोदय से बचा जा सकता है। स्वरोदय शास्त्र में बताया गया है कि "सूर्यकाल में यदि चन्द्रस्वर चलता है, या चन्द्रकाल में सूर्य स्वर चलता है तो उद्वेग, कलह और हानि की संभावना है। अतः विपरीत स्वर चल रहा हो, उस समय समस्त शुभ कार्य नहीं करने चाहिए।"३
फलितार्थ यह है कि चन्द्रकाल में चन्द्रस्वर और सूर्यकाल में सूर्यस्वर चले तथा सुषुम्नाकाल में सुषुम्नास्वर चले तो शुभ कार्यों में विघ्न-बाधाएँ नहीं पहुंचतीं। साथ ही, १. (क) कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे ।
अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥४॥ (ख) अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि!
अप्पाणं च किलामेसि, सन्निवेसं च गरिहसि ॥५॥ -दशवै. ५/२/४-५ २. जो पुव्व रत्ता वररत्तकाले, संपिक्खए-अप्पगमप्पएणं ।
कि मे कडं किं च मे किच्चसेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि? किं मे परो पासइ किं च अप्पा, किं वाहं खलिअं न विवज्जयामि। इच्चेव सम्म अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा।
-दसवेयालिय, विवित्तचरिया, चू. २, गाथा १२-१३ ३. चन्द्रकाले यदा सूर्यः, सूर्यश्चन्द्रोदये भवेत्। उद्वेगः कलहो हानिः, शुभं सर्व निवारयेत्।।
-स्वरोदय शास्त्र
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