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विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३०३
ज्ञानवृद्धि करने के निमित्त : दस नक्षत्र तथा अन्य ग्रहादि भी
स्थानांग सूत्र में “ज्ञान की वृद्धि करने में हेतुभूत दस नक्षत्र बताये गए हैं- ( १ ) मृगसिरा, (२) आर्द्रा, (३) पुष्य, (४) पूर्वाषाढ़ा, (५) पूर्वाभाद्रप्रदा, (६) पूर्वाफाल्गुनी, (७) मूल, (८) अश्लेषा, (९) हस्त, और (१०) चित्रानक्षत्र, ये दस नक्षत्र ज्ञानवृद्धिकारक हैं।"
अमुक काल में अमुक नक्षत्र आता है । नक्षत्रों और ग्रहों का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर और उसके कार्यकलापों पर पड़ता है - यह आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है।
शास्त्रकारों की दृष्टि बहुत दूरदर्शी थी। कर्म का क्षय, क्षयोपशम या उपशम हो तथा कर्मों का विपाक भी हो तो शुभ हो, इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर उन्होंने कालकृत अमुक-अमुक नियम बताये थे। इन नियमों को जानने वाला साधक आसानी से निर्विघ्नतापूर्वक अपनी संयमसाधना कर सकता है।
ज्योतिर्विदों ने मुहूर्त्त देखकर कार्य करने का विधान किया है, उसके पीछे यही दृष्टिकोण है कि यात्रा, दीक्षा, तथा गृहप्रवेश, चातुर्मासिक प्रवेश आदि जो भी शुभ कार्य किये जाएँ, वे शुभ-मुहूर्त्त, शुभ नक्षत्र, योग, करण, तिथि, वार, चौघड़िया, चन्द्रमा आदि देखकर किये जाएँ, ताकि रोग, उद्वेग, पीड़ा, तथा अन्य अनिष्टों के कारण असातावेदनीय आदि कर्मों का विपाकोदय न हो जाए। कर्मों का क्षय, क्षयोपशम, उपशम अथवा शुभ कर्मों का उपार्जन होने से शुभकार्य में विघ्न-बाधा, अनिष्ट या उपद्रव होने की आशंका कम रहती है।
प्रत्येक चर्या नियत काल में करने, न करने से लाभ-हानि
दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- 'काले कालं समायरे' अर्थात्-जिस चर्या या कार्य के लिये जो काल नियत किया है, अथवा जो काल लोकव्यवहार में प्रचलित है, उसे उसी काल (समय) में करना चाहिए। साधकों को अकाल में चर्या करने से क्या-क्या हानि होती है, इसका संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है- “हे भिक्षु ! तू अकाल में चर्या करेगा, काल का प्रतिलेखन-परिप्रेक्षण नहीं करेगा, तो स्वयं तो संक्लेश पाएगा ही, साथ
9. दसणक्खत्ता णाणस्स बुड्ढिकरा पण्णत्ता, तं जहामिसिर भद्दा पुरसो, तिणि य पुव्वाई मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता यता, दस वुड्ढकराई णाणिस्स ॥ २. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण, पृ. १२२
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- स्थानांग स्था. १०/७८१
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