SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) नौवें राजा ने सोचा- "इस शीशमहल में जो भी राजा प्रवेश करके ध्यान में बैठता है, उसे संसार से विरक्ति हो जाती है। अतः ऐसा होना ठीक नहीं है। इस शीशमहल को तुड़वा दो, ताकि फिर किसी को इस प्रकार संसार से वैराग्य न हो ।” बस, केवलज्ञान की उपलब्धि वाले इस सुन्दर एवं प्रभावशाली स्थान (क्षेत्र) को नेस्तनाबूद करवा दिया उस नौवें राजा ने। निष्कर्ष यह है कि किसी-किसी क्षेत्र के निमित्त से शुभ कर्म विपाक के बदले कर्मक्षय भी हो जाता है।' कर्मविपाक का नियम काल से भी बँधा हुआ है काल भी कर्मफल (विपाक) में निमित्त होता है। यह कर्मविपाक में मुख्य निमित्त है। काल का प्रभाव भी कर्मफल पर पड़ता है। कर्मविपाक का एक नियम काल से भी बंधा हुआ है। शास्त्र में बताया है - स्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना चाहिए, अस्वाध्यायकाल में नहीं। स्वाध्याय के लिए दिन का प्रथम प्रहर नियत किया गया है, दिन के दूसरे प्रहर में ध्यान का नियम बताया गया है। उसके कारणों की गहराई से छानबीन करने से ज्ञात होता है कि स्मरण करने का. कार्य नौ बजे से पूर्व तक अच्छा होता है। और चिन्तन-मनन एवं बौद्धिक स्फुरणा का जो कार्य है, वह नौ बजे के पश्चात् अच्छा होता है। अगर किसी विषय में विशेष खोजबीन करनी हो, शोधकार्य करना हो तो दो बजे के बाद का समय उत्तम होता है। स्वाध्यायादि के काल का यह नियम इसलिए बनाया गया है कि अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से, तथा ध्यानकाल को छोड़कर ध्यान करने से प्रतिकूल परिणाम आता है; ज्ञानावरणीय कर्म का विपाकोदय होने की सम्भावना है। नियम को समझकर कार्य करने वाला लाभ उठाता है, और नियम के विपरीत चलने वाला हानि । अतएव कर्मविपाक के कालनिमित्तक नियमों को भलीभाँति समझ लेना चाहिए। ज्योतिर्विज्ञान ने स्पष्ट बतलाया है कि किस महीने में, किस ऋतु में, किस वार और किस राशि में चन्द्र, सूर्य आदि ग्रहों की गति और उनके विकिरण किस प्रकार के होते हैं, वे व्यक्ति के तन, मन को कैसे प्रभावित करते हैं? शरीर के प्रत्येक अवयव के साथ राशि, ऋतु, ग्रह, नक्षत्र का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। ज्ञान को विकसित करने, हृदय और मस्तिष्क को सम्पुष्ट करने के लिए राशि और नक्षत्र का निर्देश आगमों एवं ग्रन्थों में किया गया है। 9. २. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएं से भावांश ग्रहण पृ. २३० (क) वही से भावांश ग्रहण पृ. २३० (ख) पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥ (ग) जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण, पृ. १२२ (घ) असज्झाए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइयं । Jain Education International For Personal & Private Use Only -उत्तरा.२६/१२ - आवश्यक सूत्र www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy