SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ४०१ एवं राजस्थान में कर लिया। वहाँ रहने से क्षेत्रान्तर होने से कर्म का विपाक भी बदल गया। वहाँ उनके वह बीमारी न होने से असातावेदनीय कर्म का विपाक नहीं हुआ।' स्थानविशेष भी कर्मविपाक में कारण बन जाता है। श्रवणकुमार जब अपने माता-पिता को कावड़ में बैठाकर कुरुक्षेत्र की भूमि से गुजर रहा था, तब उसके परिणामों में अकस्मात् क्रूरता आ गई। वह आवेश में आकर माता-पिता के प्रति अश्रद्धा प्रकट करने लगा; किन्तु उस स्थान को छोड़कर जब वह दूसरे क्षेत्र की भूमि में पहुँचा तो उसके परिणाम पुनः शुद्ध हो गए, वह पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना करने लगा। यह क्षेत्र विशेष का प्रभाव था। उसके कारण क्रोधादि कषायमोहनीय कर्म के विपाक में भी अन्तर आ गया। - भगवान् महावीर जब लाढदेश के वज्रभूमि (वइरभूमि), सिंहभूमि, आदि अनार्य प्रदेशों में विचरण कर रहे थे, तो वहाँ के निवासियों के स्वभाव में अत्यन्त रूक्षता, कठोरता एवं निर्दयता थी। उसका कारण शास्त्रकार बताते हैं कि वहाँ घी, दूध, दही आदि स्निग्ध पदार्थों का बिल्कुल अभाव था। वे भी रूखा-सूखा भोजन करते थे इसलिए रूखा-सूखा अनाज ही खाने को मिलता था। इसी कारण उन लोगों के स्वभाव में स्निग्धता, कोमलता, एवं दयालुता बहुत कम थी। यह क्षेत्रगत कर्मविपाक समझना चाहिए।" एक क्षेत्र में कर्म का उदय, दूसरे क्षेत्र में कर्म का क्षय . इसी प्रकार एक क्षेत्र (स्थान-विशेष) में कर्म का उदय हो जाता है, दूसरे क्षेत्र में कर्म का क्षय हो जाता है। भरत चक्रवर्ती का चरित्र लिखने वाले कुछ लेखकों ने उनके राजमहलों का उल्लेख करते हुए लिखा है-जिस महल में भरत चक्रवर्ती को केवलज्ञान हुआ था, वह शीशमहल था। उस शीशमहल में भरत चक्रवर्ती के अतिरिक्त और सात राजाओं को भी केवलज्ञान हो गया था। १. वही, भावांश ग्रहण, पृ. ९२ २. 'कुछ देखी, कुछ सुनी' (स्व. मुनिश्री लाभचन्द्रजी म.) से ३. देखें, आचारांग श्रु. १ अ. ९ ‘उपधानश्रुत' में अह दुच्चरलाढमचारी वज्जभूमि सुब्मभूमिं च। पत्त सेज्ज सेविंसु, आसणगाई चेव पंताई॥ "अह लूह-देसिए भत्ते।" "एलिक्खए जणे भुज्जो बहवे वज्जभूमि फरुसासी।" . . . . "दुच्चरगाणि तत्य लाटेहि।" १/९/३/८१, ८२, ८४ का विवेचन -(आ. प्र. समिति, व्यावर ) पृ. ३३० . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy