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३९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) ___भगवान् ने कहा-“गौतम! जो जीव किये हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना (फल) भोगते हैं, वे एवम्भूतवेदना भोगते हैं और जो जीव किये हुए कर्मों से अन्यथा वेदना (फल) भोगते हैं, वे अनेवम्भूत वेदना भोगते हैं।' उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण के द्वारा भी नियमानुसार कर्मविपाक बदला जा सकता है ____जो लोग कहते हैं कि कर्म करने के बाद जागरूक होने से क्या लाभ? उसका फल तो उसी रूप में भोगना पड़ेगा, उनकी एकान्त धारणा यथार्थ नहीं है। कर्मविपाक के विचित्र नियम हैं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मनुष्य यदि कृतकर्म के प्रति सावधान हो जाए और अशुभ को शुभ में परिणत करने का पुरुषार्थ करे तो कर्म के विपाक को बदला जा सकता है।
उद्वर्तनाकरण एवं अपवर्तनाकरण कर्मविज्ञान के द्वारा प्ररूपित ऐसे सिद्धान्त हैं, जिनमें से उद्वर्तनाकरण से पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्मों के अनुरूप अधिकाधिक प्रवृत्ति करने से, अधिक रस लेने से कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि हो जाती है। इसी प्रकार अपवर्तनाकरण से पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्मों की स्थिति और रस में कमी आ जाती
उद्वर्तनाकरण को एक उदाहरण से स्पष्ट समझ लें-एक लड़का पहले पाठशाला में किसी की स्लेट, पुस्तक चुराने लगा। उसका लोभ उत्तरोत्तर बढ़ता गया। उसकी मां भी उसके द्वारा चुराई गई वस्तुएँ रख लेती। उसकी चोरी की आदत को प्रोत्साहन मिलने लगा। अब वह चोरों के गिरोह में मिलकर बड़ी-बड़ी चोरियाँ अधिकाधिक करने लगा। इस प्रकार लाभ की वृत्ति-प्रवृत्ति के कारण छोटी चोरी के कारण पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति
और अनुभाग (रस) में अब बड़ी चोरी अधिकाधिक रूप से करने से वृद्धि होती गई। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि होना उद्वर्तना है।
आशय यह है कि पूर्वबद्ध कर्मों को, उससे अधिक तीव्र रस, तीव्र राग-द्वेष एवं प्रबल कषाय का निमित्त मिलने से उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति पहले से अधिक बढ़ जाती है। कषाय की वृद्धि से आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों की स्थिति का तथा समस्त पापकर्मों के रस (अनुभाग) में उद्वर्तन होता है। इसके विपरीत विशुद्धि (शुभभावों) से पुण्यप्रकृतियों के अनुभाग (रस) में उद्वर्तन होता है।
इसी प्रकार अपर्वतनाकरण से पूर्वबद्ध शुभाशुभ कर्मों की स्थिति एवं रस में कमी आ जाती है। किसी व्यक्ति ने पहले किसी अशुभ कर्म का बंध कर लिया, किन्तु बाद में
१. भगवती सूत्र श. १ उ. ३ सू. ३५
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