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________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३९५ कर्मों का फलभोग दो प्रकार से: तथाविपाक और अन्यथाविपाक के रूप में इस नियम के अनुसार यह आवश्यक नहीं कि पूर्वबद्ध कर्मों का फल उसी रूप में भोगना पड़े। इसके आपवादिक नियम भी हैं। कर्मविपाक दो प्रकार से होता हैतथाविपाक और अन्यथाविपाक तथाविपाक का अर्थ है - जिस रूप में कर्म बांधा है, उसी रूप में उसका फल भोगना । मान लो, किसी व्यक्ति ने किसी के पिता की हत्या कर दी; अगले जन्म में उसने उसके पिता की हत्या कर दी। यह तथाविपाक है। अफगानिस्तान आदि के पठानों में प्रायः ऐसी प्रथा है कि किसी ने किसी के पुत्र का सिर तलवार से काट डाला तो उसका पुत्र या पिता उसी प्रकार से उसका सिर तलवार से काट डालता है। दूसरा प्रकार है-अन्यथाविपाक । उसका अर्थ है, जिस रूप में कर्म बांधा है, उसी रूप में उसका फल न भोगकर अन्यथा रूप में भोगना । जैसे- किसी व्यक्ति ने किसी का धन चुरा लिया, सामने वाला व्यक्ति उसकी हत्या कर देता है, या उसे पीट-पीट कर अधमरा कर देता है। यह अन्यथारूप से कर्म का फलभोग हुआ।' कर्मफल के सम्बन्ध में इतने विवेचन के पश्चात् चार नियम प्रतिफलित होते हैं(१) कर्म का फल अवश्य ही मिलता है। (२) वह सर्वथा हमारी इच्छानुकूल ही हो, यह आवश्यक नहीं; कभी कम प्राप्त होता है, कभी अधिक और कभी विपरीत। (३) कर्म करने के बाद फल-प्राप्ति कर्तृत्व के अधीन न होकर भोक्तृत्व के अधीन होती है । फल प्राप्ति होती है, की नहीं जाती। बीज बोना और उसे सिंचित करने का कार्य बागवान के अधीन है, किन्तु आम उत्पन्न करना उसका काम नहीं । (४) कर्म वर्तमान में होता है, उसका फल भोग भविष्य में और कभी-कभी सुदूर भविष्य में भी होता है । कर्मफलवेदन एवम्भूत या अनेवम्भूत? इस सम्बन्ध में भगवती सूत्र में एक प्रश्नोत्तरी भी है। गणधर गौतम ने भ. महावीर से पूछा-भगवन् ! अन्ययूथिकों का यह अभिमत है कि सभी जीव एवंभूतवेदना (जिस प्रकार से कर्म बांधा है, उसी प्रकार ) भोगते हैं, क्या यह कथन उचित है ?" भगवान् ने कहा-‘“गौतम! अन्ययूथिकों का यह एकान्तकथन मिथ्या है। मेरा यह अभिमत है कि कितने ही जीव एवम्भूतवेदना भोगते हैं और कितने ही जीव अनेवंभूतवेदना भी भोगते हैं। " गौतम ने पुनः प्रश्न किया- “भगवन् ! यह कैसे ?” १. (क) जैनधर्म: अर्हत् और अर्हताएँ से भावांश ग्रहण पृ. २२८ (ख) भगवतीसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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