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________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३९७ वह संभल कर शुभ कर्म (कार्य) करता है, तो उसके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति एवं फलदान शक्ति घट जाती है। जैसे - मगध सम्राट, श्रेणिक ने भ. महावीर के सम्पर्क में आने से पूर्व, क्रूर कर्म करके सप्तम नरक का आयुष्य बांध लिया था, किन्तु बाद में भ. महावीर की शरण में आने तथा उनकी पर्युपासना करने से उसे सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों पर पश्चात्ताप करने से, शुभ भावों के निमित्त से उसके द्वारा पूर्वबद्ध सप्तम नरक का आयुष्य कर्म घटकर प्रथम नरक का ही रह गया। इसी प्रकार कोई पहले अच्छे कर्म करे उससे उच्चस्तरीय देवगति का बन्ध हो जाए, किन्तु बाद में उसके शुभभावों में गिरावट आ जाए तो उसके उच्चस्तरीय देवगति का बन्ध घटकर निम्नस्तरीय देवगति का हो जाता है। जैसे-खेत में उगाए हुए पौधे को अनुकूल खाद, पानी, ताप व जलवायु न मिले तो उसकी आयु एवं फलदान शक्ति घट जाती है, इसी प्रकार पूर्वबद्ध तथा सत्ता में स्थित (संचित) अशुभ कर्म के बन्ध को उसके प्रतिकूल प्रतीकारक संवर एवं आलोचना, प्रायश्चित्त आदि करने से उसकी स्थिति एवं फलदान शक्ति घट जाती है।" इस प्रकार कर्मफल,भोग (विपाक) के अनेक आपवादिक नियम हैं। चतुर्विध-संक्रमण के नियम भी कर्मफल के नियम हैं। इसी प्रकार प्रकृति - संक्रमण, स्थिति-संक्रमण, अनुभाग-संक्रमण और प्रदेशसंक्रमण के भी विभिन्न नियम हैं। उन नियमों के अनुसार कर्मफल ( विपाक) में काफी परिवर्तन एवं रूपान्तरण किया जा सकता है। यह संक्रमण या रूपान्तरण कर्म की मूलप्रकृतियों में परस्पर नहीं होता, केवल अपनी सजातीय उत्तरप्रकृतियों में ही यह सम्भव है। कर्मों का उपशमन : फल प्रदान करने में अमुक काल तक अक्षम : एक नियम कर्मों का उपशमन भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देता है। अथवा उन्हें अमुक काल- विशेष तक फल देने में अक्षम बना दिया जाता है। उपशमन एक प्रकार से कर्म को ढकी हुई अग्नि के समान बना देना है। जिस प्रकार राख से ढकी हुई आग हवा आदि से उस आवरण के दूर होते ही पुनः प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार कर्मों के उपशमन की अवस्था किसी निमित्त से हटते ही कर्म पुनः उदय में आकर १. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'करण सिद्धान्त : भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' लेख से सारांश ग्रहण, पृष्ठ ८०-८१ २ देखें - स्थानांगसूत्र स्थान ४ उ. ४ सू. २१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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