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________________ ३९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) दुःख आदि का वेदन होने लगे तो समझना चाहिए असातावेदनीय कर्म का विपाक है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के विपाक (फलोन्मुख) होने को पहचानना चाहिए।' कर्मविपाक को परिवर्तित करने या रोकने से लाभ यदि व्यक्ति प्रत्येक कर्म के विपाक (अनुभाव) से सावधान रहे तो वह विपाक में परिवर्तन भी ला सकता है, अथवा विपाक में आने से पहले ही उक्त कर्म का फल उदीरणा द्वारा, तपस्या द्वारा भोग कर उसे क्षय कर सकता है, उस कर्म की निर्जरा कर सकता है। ___अनाथी मुनि ने जब देख लिया कि मेरी चक्षुवेदना इतने-इतने प्रयलों और उपचारों के बाद भी मिट नहीं रही है, बल्कि वह अधिकाधिक बढ़ती जा रही है, तब उन्होंने अन्तर की गहराई में उतरकर चिन्तन किया। जैन पारिभाषिक शब्दों में कहें तो विपाक-विचय ध्यान किया, विपाक का अनुप्रेक्षण किया कि मेरे किस कर्म का विपाक हो रहा है, यानी कौन-सा कर्म उदय में आया है ? उन्होंने जब जान लिया कि असातावेदनीय कर्म उदय में आया है, वही फलोन्मुख हो रहा है, तब उस कर्म के विपाक को रोकने का, उसे निटाने का एक संकल्प किया। शरीर और आत्मा का यथार्थ भेदविज्ञान उन्होंने किया, अन्यत्वानुप्रेक्षा की,-मैं (आत्मा) एकाकी हूँ, ये सगे सम्बन्धी, आदि या शरीर, इन्द्रियाँ, मन, आदि मेरे नहीं हैं, यह शरीर को होने वाली पीड़ा मेरी नहीं है। शरीर पर ममत्व के कारण मुझे यह पीड़ा महसूस हो रही है। साथ ही उन्होंने अशरणानुप्रेक्षा भी की-“ये स्वजनादि, शरीरादि, या धन, साधन, आदि कोई भी पर-पदार्थ शरणदाता नहीं है। आत्मा ही एक मात्र आत्मा का नाथ है, वही शरणदाता है।" इस प्रकार की अनुप्रेक्षा करने के पश्चात् उन्होंने मन ही मन संकल्प किया"क्षान्त, दान्त, निरारम्भ होकर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने पर ही असातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप होने वाली यह विपुल वेदना मिट सकती है। अतः मैं वेदना से मुक्त होते ही क्षान्त, दान्त, निरारम्भ होकर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो जाऊंगा।'' ऐसा संकल्प और अनप्रेक्षण करते ही उनकी वह वेदना गायब हो गई। और वे अपने संकल्प के अनुसार अनगार धर्म में प्रव्रजित हो गए। १. वही, से भावांश ग्रहण पृ. ७८ २. देखें-उत्तराध्ययन सूत्र में अनाथी मुनि का संकल्प -उत्तरा. अ. २० गा. ३१, ३२, ३३ तओ हं एवमाहंसु दुक्खमाहु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउं जे, संसारम्मि अणंतए॥ सयं च जइ मुच्चेज्जा, वेयणा विउलाइओ। खंतो दंतो निरारंभो पव्वए अणगारियं॥ एवं च चिंतइत्ताणं पासुत्तो भि नराहिवा। परीयतंतीए राईए, वेयणा मे खयं गया॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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