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________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३९३ कर्मविपाक बदला जा सकता है इसी प्रकार जो कर्म विपाक में आने वाले हैं यदि उनके प्रति व्यक्ति पहले से ही जागरूक हो जाए तो विपाकों में परिवर्तन ला सकता है, अथवा विपाक को आने से पहले ही रोक सकता है। मान लीजिए-अज्ञानतावश, प्रमादवश, अपनी ही भूलों के कारण किसी ने कर्म बांध लिये। कर्म आकर उसके आत्म-प्रदेशों से चिपक गए, वे फलोन्मुख होने वाले हैं, उनका विपाककाल निकट ही है, उसी समय यदि सावधान और जाग्रत होकर उन बद्ध कर्मों की आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप) गर्हणा, क्षमापना, अनुप्रेक्षा, भावना, प्रायश्चित्त आदि करे तो उनकी दीर्धकालिक स्थिति (कालसीमा) ह्रस्वकालिक हो सकती है, तथा कषायादि रस में मन्दता होने से उनका अनुभाव (रस) भी मन्द हो सकता है। इस कारण वह अशुभ कर्म को शुभ में परिणत कर सकता है, अशुभ कर्मविपाक को शुभ कर्मविपाक में बदल सकता है। कदाचित् उत्कृष्ट पश्चात्ताप और तीव्र “परिणाम हों तो उन कर्मों का क्षय भी हो सकता है। अर्थात्-विपाकोन्मुख कर्मों की शक्ति में व्यक्ति स्वयं ऐसा परिवर्तन ला सकता है, जिससे उन कर्मों का विपाक ही न हो सके। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य है,' विपाकविचय नामक धर्मध्यान से यह सुसाध्य भी है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने कर्मविपाक में परिवर्तन करके उसे रोक लिया प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यानमुद्रा में खड़े थे। मगधनरेश श्रेणिक के दो सेवक उस रास्ते से जा रहे थे। उनमें से एक ने इनकी शान्त, दान्त, प्रसन्न मुद्रा की प्रशंसा की, दूसरे ने उनकी निन्दा करते हुए कहा-“यह काहे का साधु है! ढोंगी है, भगोड़ा है! जिन सामन्तों के हाथों में पुत्र को सौंपकर आया है, वे सामन्त शत्रु राजा से मिलकर राज्य हथियाने को : 'उद्यत हो रहे हैं। भयंकर संग्राम हो रहा है। इनका पुत्र परेशान है, प्रजा भी पीड़ित है।" यह सुनते ही राजर्षि अत्यन्त रोष और आवेश में आकर युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गए। मन ही मन शस्त्रास्त्रों की रचना करके शत्रुसेना का मन से ही संसार करने लगे। अभी सबको परास्त करके विजय प्राप्त करूँगा। उनका धर्मध्यान रौद्रध्यान में परिणत हो गया। अपनी इस रौद्र एवं घोर हिंसात्मक मनःस्थिति से राजर्षि सप्तम नरक में जाने योग्य कर्मबन्ध करने लगे। - जब स्वमनोरचित शस्त्रास्त्र समाप्त हो गए तो अपने मुकुट से शत्रु पर प्रहार करने हेतु मस्तक पर हाथ ले गए; परन्तु मस्तक पर हाथ जाते ही चौंके-अरे! मेरे मस्तक पर मुकुट कहाँ ? मैं तो साधु हूँ, समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य समझने वाला, सारे विश्व १. (क) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित ‘करण सिद्धान्तः भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया लेख से, पृ. ८८ (ख) कर्मवाद से भावांश ग्रहण पृ. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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