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विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए
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फलोन्मुख नहीं होता । विवेकी साधक चाहे तो निकाचित रूप से बद्ध कर्म को छोड़कर शेष बद्ध कर्मों को उदय में आने से पहले भोग सकता है।
विपाकविचय (कर्मफल का अनुप्रेक्षण) : धर्मध्यान का एक अंग
धर्मध्यान के चार चरण बताये गए हैं। उनमें से तीसरा है- विपाक-विचय । उसका अर्थ है- विपाक का अनुप्रेक्षण । विपाक को बारीकी से देखना ।
मनुष्य प्रायः अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति करता चला जाता है। वह उसके विपाक पर ध्यान नहीं देता । प्रत्येक प्रवृत्ति के विपाक (परिणाम) पर ध्यान दिया जाए और बारीकी से देखने का प्रयत्न किया जाए कि इस प्रवृत्ति से उपार्जित कर्म का क्या विपाक (फल) होगा ? अथवा इस समय कौन-से कर्म का विपाक (फल) चल रहा है ? तो प्रवृत्तियाँ भी यतनापूर्वक होंगी, आवेश, आवेग और उच्छृंखलता के साथ कोई भी प्रवृत्ति नहीं होगी ।
जो व्यक्ति विचार, विवेक एवं उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है, वह बहुत संतुलन और यतना के साथ कार्य करेगा। इससे कर्मबन्ध भी तीव्र रूप से नहीं होगा, हो सकता है, कर्म की निर्जरा भी हो जाए। अथवा आते हुए कर्म का निरोध भी हो जाए। यदि व्यक्ति विवेक और यतना से विमुख होकर, कर्म के विपाक और फल से आँखें मूंद कर कार्य करता चला जाता है, तो उससे अनिष्टकर, अवांछनीय और अहितकर कार्य भी हो जाते हैं, जिनके लिए उसे पीछे पछताना पड़ता है। अतः अन्तर् की गहराई में उतरकर देखना चाहिए कि बुद्धिमन्दता है तो किस कर्म का विपाक है ? अधिक नींद सताती है तो किस कर्म का विपाक है ? रोग या व्याधि किस कर्म का विपाक है ? क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार या कपट आया, वह किस कर्म का विपाक है ?"
विपाकविचय का सुगम उपाय
यदि हमारे इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान की शक्ति आवृत एवं कुण्ठित होने लगे तो समझना चाहिए कि ज्ञानावरणीय कर्म विपाक में (फलोन्मुख ) आया है। यदि हमारी आँखों से तथा अन्य इन्द्रियों से सूक्ष्मरूप से देखने ( सोचने-विचारने) की शक्ति आवृत या कुण्ठित हो जाए, अथवा गहरी नींद आने लगे, हर अच्छा कार्य करते समय निद्रा सताने लगे तो समझना चाहिए, दर्शनावरणीय कर्म के फलोन्मुख होने (विपाक) से ऐसा होता है। यदि हमारे तन-मन-वचन और इन्द्रियों में राग-द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं भय, अहंकार आदि आवेगों और वासनाओं-कामनाओं का चक्र चलने लगे तो समझना चाहिए मोहनीय कर्म फलोन्मुख हो रहा है, विपाक में आया है। रोग, संकट,
१. कर्मवाद से भावांश ग्रहण, पृ. ७७
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