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________________ ३९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) . वेदन (अनुभव) होता है। असातावेदनीय कर्म के शीघ्र उदय को प्राप्त (उदीरणा) होने में एक निमित्त है-पुद्गल। एक व्यक्ति हिमाचल की पहाड़ियों के पास बनी सड़क से जा रहा था। दोनों ओर पहाड़ियाँ थीं। अचानक पहाड़ से टूटकर एक पाषाण उस पर पड़ा। ऐसी चोट लगी कि वह घायल हो गया। उसको असह्य पीड़ा हो गई। अक्समात् आसातावेदनीय कर्म का उदय हो गया। इसी प्रकार अन्य कर्मों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। प्रज्ञापना सूत्र में ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय कर्म तक के अनुभावों (विपाकों) का विस्तृत वर्णन है। 'कर्ममहावृक्ष के सामान्य और विशेष फल' नामक निबन्ध में हम उन सबकी चर्चा कर आए हैं। ___ असातावेदनीय के शीघ्र उदय का एक निमित्त कारण है-पुद्गलपरिणाम। जैसेकिसी व्यक्ति ने दूंस दूंस कर सरस भोजन खा लिया। इस कारण अजीर्ण हो गया, ऊर्ध्ववात (गैस) होने लगा। पेट में उदरशूल हो गया। यह है-आहार के पुद्गलों के निमित्त से असातावेदनीय कर्म का शीघ्र विपाक। किसी साधक ने दही खूब खा लिया। वह ध्यान करने बैठा। परन्तु ध्यान जमता । ही नहीं, उसे बहुत नींद आने लगी। यह है-दर्शनावरणीय कर्म का शीघ्र उदय में आकर विपाक (फल भोग) के सम्मुख हो जाना। किसी ने मांसादि का या अत्यधिक मिर्च मसाले से संस्कारित तामसिक भोजन किया। फिर वह ध्यान में बैठेगा तो क्या धर्मध्यान में मन जमेगा? यह निश्चित है कि उसका मन उचट जाएगा। मन में विकारों का, उत्तेजनाओं का अन्धड़ उभड़ने लगेगा। इस प्रकार चारित्र-मोहनीय कर्म के शीघ्र उदय होने में निमित्त बना उस तामसिक आहार के पुद्गलों का परिणाम उदय को प्राप्त कर्म ही विपाक (फलप्रदान) के योग्य होता है कर्म आठ हैं, और आठ कर्मों के अनेक विपाक (अनुभाव) हैं। संक्षेप में कर्मफल के नियम की दृष्टि से हमने विपाक की चर्चा कर दी है। इससे नियम का हार्द समझ में आ जाएगा कि कर्म विपाक के यानी फल देने योग्य तभी होता है, जब वह उदय को प्राप्त हो जाए। उदय को प्राप्त हुए बिना कोई भी कर्म फलोन्मुख नहीं होता। अमुक-अमुक विशिष्ट कारणों से अमुक-अमुक कर्म का बन्ध होता है, किन्तु बन्ध होते ही तत्काल वह कर्म १. आठों ही कर्मों के विविध अनुभावों (विपाकों) के विषय में देखें-“कर्ममहावृक्ष के सामान्य और विशेष फल" नामक निबन्ध। २. कर्मवाद से भावांश ग्रहण, पृ. ७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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