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________________ विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३८९ करता है। जैसे–मनुष्य भव या तिर्यञ्चभव को पाकर निद्रारूप दर्शनावरणीय कर्म अपना विशिष्ट अनुभाव (फल) प्रकट करता है। तात्पर्य यह है कि किसी विशिष्ट गति, स्थिति और भव के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि कर्म उस-उस गति, स्थिति या भव को प्राप्त करके शीघ्र ही स्वयं उदय को प्राप्त (फलाभिमुख) हो जाते हैं।' परनिमित्त से उदय को प्राप्त होने के दो निमित्त ___ परनिमित्त से उदय को प्राप्त में सर्वप्रथम निमित्त है-पुद्गल। पुद्गल को प्राप्त करके असातावेदनीय अथवा क्रोधादिरूप कषायमोहनीय कर्म आदि शीघ्र उदय को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात् इनकी उदीरणा हो जाती है। जैसे-किसी ने पत्थर, ढेला आदि किसी पर फेंका, अथवा तलवार आदि शस्त्र से प्रहार किया, ऐसे समय में इनमें से किसी पुद्गल (जड़पदार्थ) के निमित्त से मनुष्य घायल या मूर्छित हो जाता है, तो असातावेदनीय कर्म का शीघ्र उदय हो जाता है, अथवा व्यक्ति शस्त्रादि के प्रहार से शीघ्र ही मर जाता है, इसमें आयुष्य कर्म की शीघ्र उदीरणा हो गई, या प्रहार करने वाले के प्रति मन में तीव्र क्रोधादि कषायमोहनीय कर्म का उदय होता है और व्यक्ति तुरंत प्रतिप्रहार करने को उद्यत हो जाता है। ___ परनिमित्त से उदय को प्राप्त कर्म में दूसरा निमित्त है-पुद्गलपरिणाम अर्थात्पुद्गलों के परिणमन के निमित्त से भी व्यक्ति के कोई कर्म शीघ्र उदय में आ जाता है। जैसे-किसी ने मद्यपान किया। उसका नशा चढ़ते ही ज्ञानावरणीय कर्म का उदय हो गया; उसकी बुद्धि, विवेक एवं जानने की शक्ति पर आवरण आ गया। . इस प्रकार गतिहेतुक, स्थितिहेतुक एवं भवहेतुक ये तीन विपाकोदय स्वतः उदय में आने वाले कर्म के हेतु हैं, जबकि पुद्गल हेतुक एवं पुद्गल-परिणाम-हेतुक ये दो विपाकोदय परतः उदय में आने वाले कर्म के हेतु हैं। पुद्गल और पुद्गल-परिणाम से उदय को प्राप्त कर्म विपाक इसे विशेष स्पष्टरूप से समझने के लिए एक उदाहरण ले लें-वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। इन दोनों से क्रमशः सुख और दुःख का १. देखें, वही, सू. १६७९ के मूल पाठ “गतिं पप्प, ठितिपप्प, भवं पप्प, पोग्गलं पप्प, पोग्गलपरिणाम 'पप्प," का विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. २० २. देखें-प्रज्ञापना सूत्र पद २३, द्वार ५ सू. १६७९ के 'पोग्गलं पप्प, पोग्गलपरिणामं पप्प' का विवेचन __ (आ. प्र. समिति ब्यावर) पृ. २० - ३. विपाक सूत्र प्रस्तावना (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) से पृ. ३३ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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